आदर्श भूषण की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jan 10
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कुपित संज्ञाएँ
1. दुःख
हुआ
और होता रहा
बीतना नहीं आया उसे
जीवन की तरह
रीतना नहीं आया।
2. शोक
अचानक
जैसे अपने शव पर मिट्टी-आग
जाते हुए में गहरे आना
पैठना — आत्मा की तलहट पर।
3. पीड़ा
उगी हुई नागफनी
पर पहले उसके
उगा हुआ रेगिस्तान मन का।
4. व्यथा
हर सम के बाद और पहले का
आगा-पीछा
विषम अपने सम में
दूरियों की गाँठ पर।
5. संताप
घुलता रहा हड्डियों में
ज्यों लगता है घुन और
पोला करता जाता है नाज।
6. खेद
विष था
भोग्य के हिस्से आया —
सो पीना पड़ा
मरते में जीना पड़ा।
7. यातना
एक क्षण का पारा फूटकर
कई-कई प्रकाश वर्षों में फैल गया
न सहा गया — न कहा गया।
8. वेदना
रुदाली —
अपना कुछ न था
बिलखी परभाग्य का ऊसर देख-देख।
जड़त्व
1.
इतनी भीड़ है कि
सब कुछ भीड़ होता जा रहा है
एक-एक आदमी धक्का देता हुआ
कहीं पहुँचने की व्यग्रता में
कहीं नहीं पहुँचता हुआ।
2.
सारे शब्द एक-एक कर भीड़ में दाखिल हो गए हैं
पर नहीं जानते भीड़ की भाषा
भाषा का गणित एक को अनगिन में जोड़ता हुआ
अर्थ में अनर्थ की तरह और अनर्थ में अर्थ की तरह।
3.
जितनी देहें जन्मीं
सब के लिए कुछ न कुछ दुनिया
इतनी दुनिया कि सब दुनिया कतारों में
एक-एक करके अंत्येष्टियों की ओर बढ़ती हुई।
4.
कई-कई रोग हैं — जोग हैं
कहीं न कहीं तो यह देह भी रम जाएगी
प्रेम न भला तो मोह का रोग ही सही
जीवन न भला तो मृत्यु का जोग ही सही।
5.
कितनी साँसें एक साथ चलती हैं और
कितनी एक साथ ही रुकती हैं
इतना जड़त्व कि
जीवन और मृत्यु।
क्या इस फागुन भी नहीं मिलोगी
क्या इस फागुन भी नहीं मिलोगी?
आदमी से रेत
रेत से पत्थर हुआ
पत्थर से रंग नहीं होगा
बिछोह का यह फाग
फरेरे समेटे
बैठा कोई विरह-काग
धूल फांकता है
चैत की पौनाई पर
सावन-भादो की बरसाती लहर में
गीला हुआ एक छाता
अभी तक खुला सूख रहा है
छज्जे की मौर पर
आत्मा कहीं आसपास
खुली पीठ लेटी है
ज्यों-ज्यों दमकता ताप पिघलाता है
उसकी सड़क का कोलतार
ढीठ और ढीठ हुई जाती है
क्या यह फागुन भी बस
गिने हुए दिनों और
कुहकती हुई रातों का पूला भर है?
क्या इस फागुन भी रंग नहीं होंगे मेरे?
क्या अब सारे लाल सफ़ेद होते चले जाएंगे?
क्या आसमान नीला का नीला ही रह जाएगा?
इतने मौसम लाँघ कर
मधुमास तक भी
नहीं आएगा तुम्हारे लौटने का कोई संकेत?
क्या इस फागुन भी नहीं मिलोगी
इतने फागुन बाद?
और भी कम
एक पत्ता गिरा
उलटे आसमान को और
सहसा दुःख के हँसने की आवाज़ आई
दुःख का हँसना
आसमान की उलट की तरह उलटा नहीं
एकदम सीधा था
वह हँसता जाता था
बदलते हुए कपड़े
उलटते हुए मुखौटे भरसक
कैसी-कैसी अभागी आशाएँ हैं
बस एक सुथरे दिन की
जिन्हें घोंटने तक के लिए करनी पड़ती है लाख चिरौरियां
जीवन के वश में
हताशा के कूबड़ पर हथौड़ी ठोकना है
मरघटिया तक जाने के रास्ते में
कैसे अजीब खेल में फंसा देती है मृत्यु
बीतते हुए के भ्रम में
इतना भी कठिन नहीं
गंतव्य को देखना
कठिन है महसूसना कि
कितना कम समय है
मोह के लिए
प्रेम के लिए
और भी कम।
अंतिम देवता
सुखाड़ों के चर
पूजते थे पानी को देवता की तरह
सदियों-सदियों से
उनके तलुओं के नीचे
किलोमीटरों नीचे बहती थी सरस्वती
जहाँ हाहाकारों की तरह था पानी
वे अपने बहे हुए दुधमुँहों और मरे हुए ढोर की
विकल स्मृतियों में भी अपनी आँखें सूखी रखते थे —
उनका लोकदेवता भूल गया था रोने की अभिधा
जहाँ साम्य था पुलिन और नदी के बीच —
पुलिन पर पुलिन थे
नदी नहीं थी
दोनों जानते थे एक-दूसरे की जीवनभाषा —
वहाँ पानी का कोई देवता नहीं था
पानी कई जगहों पर मुक्ति था और
कई-कई जगहों पर आलान भी
भय भी था और पथरेख भी
इतना सारभूत कि
लोग दूसरे ग्रहों-उपग्रहों तक चले जाते थे
पानी को खोजते
पानी प्रथम जीव था —
अंतिम देवता।
गिलहरियों के बच्चे
गिलहरियों के बच्चे गिलहरियों से ज़्यादा गिलहरी थे
दुनिया की पुचकार से सहमे हुए जिस भाषा में वे फुदकते
पुचकार उस भाषा में यदि बझी होती
तो पुचकार से अधिक पुचकार लगती
अपनी एक बटा दो की दौड़ में
कितना नैसर्गिक था उनका सहमना
जैसे बचाई जाती हैं इच्छाएँ बुरे से बुरे
तंग से तंग दिनों में भी
वैसे ही अपनी तन्वंगी देह को अमातने के पास की ठोकर से बचाए रखना
अनुवांशिक था उनमें
गिलहरियों के बच्चे जब अपनी फुदक संभालते हुए दौड़ते
तो लगता गुदगुदी अपनी भौतिक अवस्था में दौड़ रही हो
पृथ्वी के कलेवर पर और वह हँसने लगती —
उसके प्रति तमाम ज़्यादतियों
तमाम हिंसाओं से मुक्त
अपनी करुणा में तथाक्षण डूबी हुई
उनके लिए करुणा थोड़ी अधिक करुणा
प्रेम थोड़ा अधिक प्रेम
आशा थोड़ी अधिक आशा कि वे आते रहेंगे
गिलहरियों से थोड़ा अधिक गिलहरीपन लेकर
दुनिया की आँख से बचते हुए भी दुनिया की आँख बचाने के लिए।
कार्यालयी सोमवार
कौन था जो इस सूने बिगड़े उजाड़ में
छोड़ गया है एक अकेला सोमवार
किसकी आत्मा की भुरभुरी रेत से फिसल रहा
जीविका की ठेलम ठेल का निरासार
पिता के जीवन के सारे सोमवारों की कल्पना से
अलग बनाते हुए अपने सोमवारों का कल्प
उसी उलझ में आ अटका है
पिता के सोमवार जैसा ही
इस जीवन का सारा सोमवार
बेधुन एक खटखट
कठफोड़वे की चोंच से
खटखटाता हुआ
बीते युगों की योगनिद्रा से विपन्न
युद्ध नहीं हुए अब तक स्थगित
सेनाएं अब भी भूखी हैं
नए शव उतर रहें हैं
क़ब्र में दाह में
चल रहे हैं सब दफ़्तर
आबादियों को सकुशल याद हैं
सोमवार के साइनबोर्ड और सिग्नल्स
वेदनाओं की पुकार से अनसुन
निर्विघ्न असमाप्त की ओर
आम चाम सब चबाता हुआ
दिनों की विरक्त आवली में
सब सज्जनताओं के पार
यह अड़ियल उत्तरजीवी सोमवार।
आदर्श भूषण बेहद प्रतिभाशाली युवा कवि हैं। इनका एक कविता संकलन ‘एक अचानक के बीच’ प्रकाशित है। आदर्श को किताबों से गहरा लगाव है। कविताएँ लिखते रहते हैं, कथेतर गद्य लेखन में भी सक्रिय हैं। इनकी कविताएँ समय-समय पर बहुप्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। गणित और साहित्य दोनों में गहरी रुचि है। ईमेल : adarshbhushan@yahoo.com
अच्छी कविताएँ