top of page

अणु शक्ति सिंह की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Feb 27
  • 3 min read

Updated: Mar 14




अनुभव (तीन रंग) 



(एक )


वह चाबुक नहीं था 

जिसके निशान आत्मा पर छूटे थे 

चाबुक या नश्तर तब कम चोट देते हैं 

जब वे अपने भौतिक रूप में होते हैं 

उनकी मार सबसे अधिक घातक तब होती है 

जब वे शब्द रूप में ढलते हैं 

पुरानी औरतें कहती थीं

कड़वे बोलों से गिर जाता था गर्भ… 

कोसने से सूख जाता था लहलहाता पेड़…

पिछले दिनों पता चला 

आत्महत्या करने वाली गृहणियों के मरने की सबसे बड़ी वजह “शब्द” थे। 

वे शब्द जो चाबुक और नश्तर बन रोज़ उनकी आत्मा के देह को नष्ट कर रहे थे… 



(दो)


ख़बर पढ़ते हुए जोड़ी भर आँखें

गिन रही थीं वे तमाम मौक़े जब स्त्रियों के रक्त से सींची हुई सभ्यताएँ 

बर्बर हो रही थीं स्त्रियों के ही साथ… 

इस निष्कर्ष पर पहुँचना 

हज़ारों साल के इतिहास का दुःख खंगालना है 

त्रासदियाँ अमूमन औरतों के ही नाम हुई 

आरोप भी अधिकतम औरतों के सिर मढ़ा गया है



(तीन)


ज़रूरी नहीं है कि हर बार चिल्लाया ही जाए! 

महत्वपूर्ण नहीं है कि हर बार बताया ही जाए! 

यह भी आवश्यक नहीं कि ज़ोर से कहे जा रहे झूठ को झुठलाने की कोशिश की जाए। 

यह समय है साथ खड़े रहने का

पारस्परिक विश्वास का! 

यह समय है हाथ पकड़ने का

नसों में दौड़ रही गर्माहट और उच्छ्वास में बस रहे प्रेम के एहसासात का

दुनिया कैसी भी हो, भरोसे की सीढ़ी पहली होनी ही चाहिए 

भरोसा जिसकी बिना पर बोया जाता है प्रेम 

प्रेम जिसकी वजह से कहीं बाक़ी है ‘मनुष्य’ होना!  



साथ 


दुःख में भी बांधता है ‘साथ’! 

पीठ पर रखा हुआ एक हाथ 

सफ़र भर की रसद मुनासिब करवा देता है … 

कंधे से टिका हुआ कंधा 

साफ़ कर देता है आँसू भरे आँखों की किरचियों को 

पानी का एक गिलास 

भर देता है सूखते गले में इतना तरल 

कि फूट पड़ें बोल 

और पैरों में इतनी ताक़त 

कि डगमगाने के ठीक पहले 

थिर हो जाएँ कदम… 

दुःख के भीषण क्षणों में भी 

सुख अपना रास्ता नहीं भूलता 

वह यक ब यक मिल ही जाता है 

कभी आँसू पोछते हाथों के स्पर्श में 

कभी भींच कर लगाये गये गले में 

दुःख साथ को पुख़्ता करने की नियामत है 

यह पीड़ा है, सुख से परिचय की दृष्टि भी…



लाठी 


उठती हुई लाठियाँ

दर्द नहीं बरसातीं,

वे दरअसल तोड़ती हैं विश्वास,

उस व्यवस्था में, जो कहती है स्वयं को

लोक द्वारा, लोक से, लोक हेतु...

कहते हैं, 

भरोसा टूटने का दर्द,

किसी भी चोट से अधिक दुखता है। 

बेंत की तरह दिखनेवाली 

इन लाठियों में

बाँस का लचीलापन नहीं होता है

इसमें दम्भ की कठोरता होती है 

और तानाशाही की दमक...

चमड़े के मूठ वाली ये लाठियाँ होती हैं मूक गवाह भी

सत्ता की शक्ति की..

जिसके बेलगाम होते ही, टूटने लगते हैं लाठी खाने वाले  के हाथ-पैर 

और सिर…

बमुश्किल दो हाथ लम्बी 

इन लाठियों के ज़रिये

खींची जा सकती है

सबसे मोटी और लंबी लकीर... 

दो विचारधाराओं के मध्य, दो धर्मों के बीच, दो निर्दोषों के बीच भी

दुःख यह है,

यह लाठी केवल उस हाथ में नहीं होती है, जहाँ दिखती है

यह अक्सर सत्ता के हाथ में होती है

और लोकतंत्र की पीठ पर बेलगाम टूटती है। 



सीखना 


365 दिन और 6 घंटे 

इतने वक़्त में धरती पूरी करती है परिक्रमा 

बदलती हैं ऋतु, चक्कर के इस चक्र में…

चौबीस घंटे का होता है घूर्णन 

पृथ्वी घूमती है अपने अक्ष पर 

दिन का उगना और डूबना है रोज़ की बात 

वह जो रोज़ होता है, उसमें नया क्या है? 

रेज़ा-रेज़ा रिसते संसार में सब पहले से है, 

सब वही है जो हो चुका है… 

पुरानी बातें, पुराने संवाद, वही तौर तरीक़ा 

नष्ट होने की वही पुरातन जद्दोजहद 

एक भँवर है, सर्वस्व उदरस्थ करने को आतुर 

पुरानेपन के इस भँवर में

कवि ढूँढता है नयेपन के प्रतीक

सूरज का उगना प्राचीनतम है 

भोर का खिलना भी 

फिर भी हर आज नया होता है… 

जन्म लेना मनुष्यों के इतिहास की सबसे पुरानी बात है 

हर शिशु वैसे ही तो पैदा होता है 

माता के गर्भ से… 

नया है हर शिशु का अपनी नज़र से दुनिया देखना 

शिशु हर सीखी हुई चीज़ सीखता है 

हर जानी हुई चीज़ जानने की उत्कंठा में होता है…

शिशु की उत्कंठा नयेपन का अभिरूप है 

यह दर्ज करता है, 

“सीखना इस संसार में सबसे नई चीज़ है”


 


अणु शक्ति सिंह सुपरिचित युवा कथाकार और कवि हैं। मूलतः बिहार के सहरसा ज़िले से, दिल्ली में स्थाई निवास।


प्रकाशित कृतियाँ : दो उपन्यास शर्मिष्ठा और कित कित।


पुरस्कार : कविता के लिए बिहार का प्रतिष्ठित युवा पुरस्कार, विद्यापति पुरस्कार (2019); पहले उपन्यास शर्मिष्ठा को अमर उजाला शब्द सम्मान ‘थाप’ (2021)।


Comments


bottom of page