top of page

देवभूमि बनाम भूतभूमि

  • golchakkarpatrika
  • Feb 25
  • 4 min read

Updated: Feb 25




मेरे गाँव और उसकी छोटी-सी चौतरफा सीमाओं में कम से कम दस देवस्थान हैं जिनमें तीन तो मंदिर ही हैं। पानी के स्त्रोत के देवता से लेकर भूमि के भुम्याल तक हर जगह देव पसरे रहते हैं।


इसके अलावा गाँव के हर कुनबे का एक "ठा" होता है जो उस कुनबे के कुलदेवता का स्थान माना जाता है। कुल मिलाकर जितनी गाँव की जनसंख्या, उसका कम से कम आधे देवस्थान होते हैं। इसलिए हमें कभी भी यह नहीं पूछना पड़ा कि हमारे उत्तराखंड को देवभूमि क्यों कहा जाता है। हम जिस दिशा में मुँह करके खड़े हों, कम से कम एक मंदिर दिख जाने की गारंटी है।


वक़्त बीतने के साथ उत्तराखंड के गाँवों से लोग पलायन करने लगे। गाँव ख़ाली होते गए और अब गाँवों में देवता ज़्यादा और लोग कम रह गए हैं। जिन घरों में "ठा" थे, वो जर्जर हैं; कुछ ज़मींदोज़ भी हो गए। जिस कुलदेवता का नाम याद कर पलायित पहाड़ी शहरों में ज़िंदगी की जद्दोजहद करते हैं, उस कुलदेवता को अपना अकेलापन इतना शक्तिहीन कर गया कि उनमें अपने रहने के ठिकाने को बचाने की भी इच्छा नहीं रही।


उत्तराखंड राज्य गठन के चौबीस साल बीते। पहाड़ों में न सुविधाएँ पहुँची, न रोजगार बढे। जिन लोगों को पहाड़ों में किसी मजबूरी में रहना पड़ रहा है, उनके पास रोटी कमाने के कुछ ख़ास साधन नहीं हैं। एक सम्मानजनक रोज़गार में बची-खुची जनता के शुभ-अशुभ कामों के लिए पंडितगिरी करना और बिगड़े काम बनाने के लिए देवताओं को प्रसन्न करने वाले जगरी बनना कुछ गिने-चुने विकल्पों में था।


चूँकि एक पहाड़ी की नसों में ख़ून के साथ आस्था भी बहती है और इससे भी मज़ेदार बात यह है कि इतने सारे देवताओं की निगरानी में रहने वाले पहाड़ी हमेशा अनिष्ट के भय से डरे रहते हैं। हम अपने देवताओं से प्यार करने के बजाय उनके रूठने के भय से उनके पास जाते हैं। इसी बात का फ़ायदा हमेशा से कुछ धूर्त उठाते रहे — लोगों को अनिष्ट का भय दिखाना, अन्धविश्वास फैलाकर पैसे ठगना हमेशा से पहाड़ में होता रहा है।


बीते कुछ सालों में यह सब बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पहाड़ में अन्धविश्वास का इतना विकास हुआ है कि अगर इसका आंकड़ेवार अध्ययन हो सकता तो बहुत हैरान करने वाले नतीजे आते। पहाड़ में रहने वाले लोगों के अंधविश्वासी होते जाने का ये स्वर्णयुग है। अब लोग अपने इष्ट देवों को भुलाकर भूत भगाने वालों की शरण में हैं। अगर किसी को दो दिन से ज्यादा दाँत दर्द रहने लगे तो वो सीधे किसी चावल देखने वाले के पास जायेगा। उस पर "छल" यानी भूत-प्रेत का साया होने की तुरंत पुष्टि होगी। भूत पुजवाने की एक तिथि तय होगी। कम से कम एक हज़ार का खर्च बताया जायेगा। ना करने पर दाँत दर्द के ही, न सिर्फ पीड़ित बल्कि पूरे परिवार के समूल नष्ट होने का कारण बनने की घोषणा होगी और इस तरह एक मामूली दाँत का दर्द एक पूरे परिवार को आर्थिक और मानसिक परेशानी में झोंक देगा।


पहाड़ से पलायित लोग भी भयंकर रूप से इन अंधविश्वासों के मकड़ जाल में फंसे हैं। शहर में यदि कोई ऐसी समस्या आ जाए जिसका तुरंत हल ना मिल रहा हो तो पहाड़ में रह रहे किसी निकट सम्बन्धी को फ़ोन किया जाता है। सम्बन्धी तुरंत किसी जनगुरु के पास जाता है और पता चलता है, यह और कुछ नहीं "घरभूतों" अर्थात पितरों के रुष्ट होने का प्रकोप है। समाधान के तौर पर जागर लगवाने और दूसरी तंत्र क्रियाओं को करवाने का कहा जाता है जिसमें अच्छा खासा पैसा ख़र्च होता है। जो लोग सालों साल गाँव की खबर नहीं लेते, अपनी जान छुड़ाने के लिए दौड़े चले आते हैं। पहाड़ की लड़कियों को तो एक बार शादी से पहले और अगर शादी के पहले साल में बच्चा ना हो (कारण कुछ भी हो), सास ससुर से न बने, पति की नौकरी ढंग की न हो, अपना छल उतरवाना ही पड़ता है। मायका और ससुराल इतना इमोशनल ब्लैकमेल कर देगा कि लाख पढ़े-लिखे हों, उनकी बात तो माननी ही पड़ेगी।


एक आम पहाड़ी इतना अंधविश्वासी हो चुका है कि उसने अपनी हर परेशानी का हल भूत पुजवाने और जागर लगवाने में ढूंढना ही परम सत्य मान लिया है। नेताओं को पहाड़ की सुध है नहीं, उनके लिए देहरादून ही उत्तराखंड है। पहाड़ में न समय पर डॉक्टर मिलता है, न कोई और सुविधा। इसलिए इन्हीं कपटी ओझाओं की शरण में उन्हें कुछ राह सूझती है जो इन्हें डरा कर  अपना उल्लू सीधा करते हैं। आलम ये है कि कई युवा जो शहरों में छोटी मोटी नौकरी कर रहे हैं, चैत्र और भादो के महीने में गाँव जाकर पार्ट टाइम लोगों के भूत भगाते हैं क्योंकि इन दो महीनों को भूत भगाने के लिए सर्वोत्तम माना जाता है और तांत्रिक कम पड़ जाते हैं।


इसमें भी कमाल की एक बात है कि पहाड़ में अंधविश्वास को बढ़ाने में बदलती तकनीक को भी ख़ूब इस्तेमाल किया जा रहा है। जो लोग अपनी व्यस्तताओं के चलते या किसी काम में तुरंत सहायता की ज़रूरत के चलते पहाड़ नहीं जा पा रहे, उनके लिए अब ऑनलाइन पूजा पाठ, तंत्र-मंत्र सुलभ करवा दिए जा रहे हैं। आपको वीडियो कॉल पर बने रहना है, ऑनलाइन पैसे भेजने हैं और गाँव में बैठा पंडित या तांत्रिक आपकी देव या भूत बाधा पार करवा देगा।


एक राज्य जिसे इस सपने के साथ बनाया गया कि दूर पहाड़ों तक विकास पहुँचेगा, लोग घर लौटेंगे, गाँव उजड़ने बंद होंगे, उसका पहाड़ी समाज आज अन्धविश्वास के नाम पर रोज़ी तलाश रहा है। एक-दूसरे का शोषण कर रहा है और आने वाले समय में स्थिति ऐसी होगी कि इसे देवभूमि नहीं, भूतभूमि पुकारा जायेगा।




 

दीपिका घिल्डियाल युवा गद्यकार-कवि हैं। उनकी कहानियाँ हंस और इंडिया टुडे जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कुछ कविताएँ ऑनलाइन पोर्टल्स पर प्रकाशित हैं।




Commenti


bottom of page