top of page

ललन चतुर्वेदी की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Apr 6
  • 5 min read



देखना


वर्षों से टंगी कमरे में एक तस्वीर

या पूजा घर में रखी गई एक छोटी सी मूर्ति

न जाने कितनी बार गुज़रतीं हैं हमारे दृष्टि-पथ से

कभी-कभी तो चौबीस घंटे में ही छत्तीस बार

फिर भी, बहुत कुछ अदेखा रह ही जाता है 

एक दिन जब देखते हैं उसे ध्यान से

दिखाई देते हैं कुछ रेखांकन, कुछ बिन्दु

जिनके बिना नहीं हो सकता था पूरा उनका सौन्दर्य

कितनी चीज़ें मिलकर बनाती हैं एक सुंदर तस्वीर

कितनी वस्तुएं मिलकर भरती हैं एक मूर्ति में सौन्दर्य

यह हमारी दृष्टि की सीमाएं हैं कि हम देख नहीं पाते संपूर्ण


अकारण नहीं देखने की एक क्रिया के लिए बने हैं अनेक क्रिया-पद

और देखने के रूप में लक्षित होता है सबका अलग-अलग अर्थ


एक जीता-जागता मनुष्य रह जाता है अलक्षित

इससे पहले कि हम देख सकें उसकी संपूर्ण तस्वीर

वह बदल चुका होता है तस्वीर में

कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि किस तरह करते हैं

हम उसका मूल्यांकन

तस्वीर हो या हो मूर्ति, मनुष्य हो या पेड़

यहाँ तक कि नदी हो या पहाड़

सब हमें प्रेरित करते हैं कि एक बार ही सही

उन्हें ठीक से देख लिया जाए

हम उन्हें वैसे कभी नहीं देख सकते

जैसे देखते हैं ट्रेन से गुज़रते हुए दृश्य ।



बाघ प्रार्थना नहीं सुनता


बाघ अक्सर भूखा नहीं होता

उसके दहाड़ने से हमें उसके भूखा होने भरम होता है

पर जैसे ही पड़ता है उसके सामने आदमी या जानवर 

वह भूख से बिलबिला उठता है


वह किसी प्रकार की दलील नहीं सुनना चाहता

अनुनय-विनय से उसे कोई मतलब नहीं

न्याय-नीति सब उसके सामने घुटने टेक देती हैं

उसके यहाँ कोई अर्जी, प्रार्थना स्वीकार नहीं होती

कोई वकील-मुख्तार उसकी अदालत में पैरवी नहीं कर सकता

यहाँ तक कि कोई देवी-देवता भी सहायता नहीं कर सकता


जब किसी उपाय से बचा नहीं जा  सकता

और अंतिम विकल्प के तौर पर आदमी मैदान छोड़ने का कर रहा होता है विचार

वह टोह लेते-लेते पहुँच जाता है

और कर देता है सभी सीमाओं को सील


यह लोगों का भरम है कि केवल जंगल ही होता है बाघ का बसेरा

अब तो वह हर गली-मोहल्ले में घूमने लगा है बेख़ौफ़

बहुत से घरों में उसने बना लिया है अपना स्थायी मांद 

हर आदमी उसके खौफ में जी रहा है दिन-रात


अब वह एक ही बार में नहीं करता साबुत किसी को उदरस्थ

वह समय-समय पर लेता है पोषणयुक्त आहार


वह एकबारगी किसी का गला  भी नहीं पकड़ता

किसी की गर्दन को दबोचने के पहले

वह उसे जीभ से चाटता रहता है लगातार

आदमी बिल्कुल बुत की तरह खड़ा हो जाता है

और देखते ही देखते लुढ़क जाता है

तब बाघ ज़ोर से लगाता है दहाड़

सारे सियार मिलकर करते हैं जय-जयकार।



विराम चिह्न


पढ़ते-पढ़ते रुक जाता हूँ 

कोई पंक्ति है जो आगे बढ़ने नहीं देती

सोचने लगता हूँ— कैसे कोई पंक्ति बन जाती है आखिरी पंक्ति

या खड़ी हो जाती है अभेद्य दीवार की तरह

जबकि सामने पड़ी हुई है पूरी की पूरी किताब

आमंत्रित करती हुई, ललचाती हुई कि बची हैं 

कितनी ख़ूबसूरत चीज़ें, कितने मनोरम दृश्य


पर सबसे वंचित क्यों कर रही है पंक्ति

कोई बहुत गूढ़ तो नहीं है इसका अर्थ

बहुत साफ़ है, समझ के दायरे में ही

फिर भी यह पंक्ति कर चुकी है सारे रास्ते अवरुद्ध

पीछे भी झांकना नामुमकिन

इस तरह समझ में आने लगा है एक पंक्ति का महत्व

जो कब्जे में ले लेती है पूरा का पूरा अस्तित्व


मैंने पंक्ति को बहुत हल्के से लिया था

जबकि मुँह चिढ़ा रहा था अंत में लगा विराम चिह्न।

            


अकेले कंठ की पुकार


अकसर चींटियां गुड़ में ही लगतीं हैं

और केले के दौन के बीच बीज ग्रहण कर लेते हैं वृक्ष का आकार

वे उन्हीं से लेते हैं जीवन रस और छांह

उन्हें कहाँ पता कि ये बड़े होकर कर देंगे कदली वन का सत्यानाश

वह जो बहुत नज़दीक आ बसता है

तुम्हें विस्थापित करने के लिए वही उठाता है झंडा


अब देवताओं और दानवों का लोक अलग-अलग नहीं है

और न ही अलग-अलग है उनका देश

वे आते हैं और बैठ जाते हैं तुम्हारे पास

कभी-कभी तो दिल में भी बस जाते हैं, काबिज हो जाते हैं

और एक दिन तुम हो जाते हो ख़ुद से ही बेदखल


चलता रहता है यातना का सूक्ष्म चक्र

और सहन करते-करते तुम हो जाते हो अभ्यस्त  

स्वयं को पेश करते हो प्रफुल्लित कलाकार की तरह

धीरे-धीरे यही कलाकारी तुम्हें खोखला कर देती है

जैसे तना छेदक वृक्ष को कर देता है खोंखर

और एक दिन वृक्ष गिर जाता है धराम

तनाछेदक सीपियों की तरह रेंगते हुए बाहर निकल जाता है

तब पता चलता है दुश्मन तो अस्थि-मज्जा में हो चुका था प्रविष्ट


यह गहन गति अति सूक्ष्म है, अपरिमेय  भी

वैसे भी, सारे राग साज पर गाए नहीं जाते

अकेले कंठ की आकुल पुकार कोटि कंठों में नहीं हो सकती स्वरबद्ध ।



कैसा तो समय है!


जिस तरह गरीब-गुरबा खोजता है

अपनी से गिरे हुए सिक्के को घूम-घूमकर पूरे बाज़ार 

वैसे ही खोज रहा हूँ आदमियत को हर जगह, हर बार


दर्द है, मन बहक जाता है, छलक जाता है

कोई लगता है अपना-सा, बस भूल यही हो जाती है


चौके की बात यदि चौक तक फैल जाए तो समझिए कि कोई दोस्त रहा होगा

जो चाय के कप के ठीक ठंडा होने के बाद 

मुस्करा कर मन ही मन चल दिया होगा लेकर गरम मसाला

और छिटा होगा पूरे बाज़ार में शब्द दर शब्द विश्वसनीय बनाकर


सबसे अधिक लहलहाती हैं निंदा की फसलें

इनके लिए कभी नहीं आता सूखा-आतप

सही समय पर मिलता रहता है इन्हें खाद-पानी

इन्हें जितना चरो, उतना ही ये फलती-फूलती हैं


इसी सोग में डूबता जाता है सज्जन-मन

कोई एक मजबूत विश्वसनीय कंधा तो हो— 

जिस पर रखकर हाथ, की जाए मन की बात

ओह, क्या कह रहे हो कवि!

भावुक जन के लिए यह विपत्ति का समय है।



दुःख का कवि


मैं दुःख का कवि हूं

मुझसे दूर रहो

तुम अपने सुख में मशगूल रहो


मैं दुःख की सोहबत में पूर-सुकून हूँ

तुम अपनी शोहरत में मशरूफ रहो

तुम्हारे बंगले की छत पर रात भर चाँदनी टहलती है

मेरी झोंपड़ी में दोपहर की निर्लज्ज धूप झांकती है

तुम्हारी महफ़िल में चुटकुले चलते हैं

मेरे दिल में हरदम शोले उभरते हैं


मेरे पास कोई लतीफा, ठहाके नहीं हैं

मेरे मौन‌ के गूढ़ अर्थ ढूंढने का कोई क्यों जहमत उठाए

आसान रास्ते को छोड़ क्यों कोई कंटक भरे मार्ग पर आए

सब दरकिनार हैं तो कोई अचरज नहीं

बेशक मैं भी बहुत लोगों से सहमत नहीं

आँखें सबकी अलग-अलग हैं

क्यों कोई मुझे मेरी नज़र से देखे

पर इससे बदल नहीं सकती हक़ीक़त 


वे ख़ुश हैं एक कोने से किसी पहलू की बांकी तस्वीर पेश कर

मैं पूरे कैनवास पर जिसे उतारना चाहता हूँ  आपादमस्तक


एक दिन तजवीज का आएगा

और मेरी फरियाद पर सच्चाई की मुहर लगेगी

वह दिन शायद मैं देखने के लिए रह नहीं पाऊं

लेकिन महफ़िल में मेरे इन्कलाबी शब्द गूंजते रहेंगे।



 

ललन चतुर्वेदी (मूल नाम : ललन कुमार चौबे) सुपरिचित कवि हैं।


प्रकाशित कृतियाँ : प्रश्नकाल का दौर (व्यंग्य संकलन), ईश्वर की डायरी तथा यह देवताओं का सोने का समय है (कविता संग्रह)। साहित्य की स्तरीय पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित वेब पोर्टलों पर कविताएँ एवं व्यंग्य प्रकाशित। 


ईमेल: lalancsb@gmail.com 



Comments


bottom of page