top of page

मोहन सिंह की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Apr 5
  • 4 min read



मोहन सिंह की कविताएँ 
डोगरी से अनुवाद : कमल जीत चौधरी 


पेड़ और आदमी 


ज़रूरी नहीं कि 

जो बीज आप बोते हैं

वह अंकुरित हो ही

पेड़ बनकर लहराए ही

फल दे ही

वह फलरहित भी रह सकता है

या उस पर कोई दूसरा आदमी

अपना कब्ज़ा भी जमा सकता है

फिर पेड़ तो 

पेड़ ही है

क्या वह बोल सकता है :

मैं किसका हूँ

फिर उसका क्या दोष है,

अब आदमी भी कहाँ बोलता है :

मैं किसका हूँ

और किसके कारण हूँ।



श्रापग्रस्त 


जब से रोते हुए के साथ

रोना

हँसते हुए के साथ

हँसना

गाते हुए के साथ

गाना

नाचते हुए के साथ

नाचना

और सभी को अपना समझना

छोड़ चुका हूँ

तब से मेरे होने का घेरा 

छोटा होता जा रहा है

मेरी आँखों की नमी

ख़त्म होती जा रही है

धीरे-धीरे 

एक सिल-पत्थर बनता जा रहा हूँ

जानता हूँ 

कि कोई राम मुझे 

श्रापमुक्त करने नहीं आएगा -

मैं अपने न होने से श्रापग्रस्त हूँ।



बेईमानी


समय :

रिश्वतखोर पटवारी है 

जिसने अपने रजिस्टर में

मेरे, नितांत मेरे,

जीवन को

शामलाट*

और चरागाह दर्ज़ कर दिया है...

 


*शामलाट- सामूहिक उपयोग के लिए आरक्षित भूमि, जिसका कोई मालिक नहीं होता।



जड़ों की ओर कोई नहीं देखता


फुनगी :

हमेशा ऊपर देखती है

आकाश की ओर।

पेड़ चाहे सीधा हो

या टेड़ा

या आंधी-तूफ़ान से

गिर गया हो,

अगर जड़ें बची हों धरती में

तो फुनगियां फूटती हैं...


आदमी सीधा खड़ा हो

या टेड़ा

या धराशायी हो गया हो

मगर उसकी सोच

आकाश छूती है...


फुनगी हो 

या कोई सोच

या इस धरती के लोग

सबकी गति ऊपर की ओर

सबका लक्ष्य अपना-अपना आकाश, 

जड़ों की ओर कोई नहीं देखता।



ठीक, एकदम ठीक 


उस्ताद ने ब्लैक बोर्ड के एक सिरे पर

एक वृत बनाकर

उसमें कुछ बिंदु जैसे निशान लगा दिए

और पूछा :

यह क्या है? 

मैं भूखा था 

जन्मजात, सदियों से भूखा

मैंने झट कहा : रोटी।


दूसरा भरपेट था

मगर उसकी आत्मा भूखी थी

जन्मजात, सदियों से भूखी

उसने कहा : ठेइया

नहीं रुपया

चांदी का

सोने की मोहर

और डालो और।


तीसरा मस्त था

आँखों में उसके सरूर था

होठों पर मुस्कराहट थी

वह देख रहा था

आसमान की ओर 

उसने कहा : 

यह मेरा प्यारा चाँद है

मेरी प्रेरणा

जीने का सहारा

मुझे पार ले जाने वाला।


उस्ताद ने हम सभी की ओर देखा

मंद-मंद मुसुकाते हुए 

बाहर जाते हुए

जैसे कह रहे हों :

ठीक, एकदम ठीक

आप सभी ठीक हो, अपनी-अपनी जगह।

 


बर्फ़ 


बर्फ़ गिर रही है...

पर इस बार इसके फाहे

रुई की तरह,

स्त्री के ओठों की तरह

नर्म, निग्घे और कोमल नहीं हैं

जिनका स्पर्श

यौवन की छुअन लगता था

और जिनसे मन में 

आस और सपने जगते थे।


इस बार बर्फ़; ओलों की तरह है

जिसने पकी फसलों को 

धराशायी कर दिया है

इस बार 

इसमें मीठा-मीठा ताप नहीं

समाधिस्थ 

हौंसलों के लिए अलाव नहीं 

बस एक नचूक नमोशी है

कहीं कोई हिम्मत नहीं

संघर्ष नहीं

बयान नहीं

समाधान नहीं, 

बर्फ़ गिर रही है...



लाम - 1 


इस बार कोयल नहीं कूकी

न भँवरों की गुंजार हुई

पपीहे ने गीत नहीं गाया

न यौवन की मस्ती छाई

चिड़ियों का कलरव नहीं हुआ

न मोरों ने पूँछ हिलाई

मिट्टी से कोई झोंका नहीं उठा

न जीवन से आमंत्रण मिला

इंद्रधनुष का झूला नहीं डला

न किसी ने हेक लगाई

किसी गोरी की पायल न छनकी

न आया घर ढोल सिपाही*


सतरंगी किरणें लेकर

प्यार की आस-तलाश लेकर

सूरज चढ़ा दबे पाँव आकरल

पीला-पीला

ज्वर पीड़ित

पर जीवन की आस है ताज़ी 

कोयल फिर कूकेगी

पपीहा भी गाएगा

यौवन मस्ती छाएगी

भवँरे, चिड़िया, मोर और रमणी

मिट्टी की खुशबू से भरकर 

मस्त होकर 

सतरँगी झूले पर चढ़कर 

जीवन आमन्त्रण देते-देते

ढोल-सिपाही आएँगे

जीभर भाखें* गाएँगे

फिर कभी लाम पर न जाएँगे।


*ढोल सिपाही- नायक/प्रेमी

*भाख - गीत की एक शैली



रात 


आज मुद्दत बाद 

रात देखी

सप्त-ऋषियों के दर्शन किए

ध्रुव तारे की लौ पहचानी

चाँद देखा

चाँदनी देखी

तारे देखे, आसमान ताका

आज बहुत समय के बाद...


आज मुद्दत बाद

कई बातों ने

घेर लिया

बीते बरसों की याद आईं :

रात-रात जागना 

एकटक 

तारे गिनना

चउआ, कोकू* और बित्ता मापना

बाँसुरी की सुरीली तान सुनना

नानी की बातों पर हुंकारे भरना

आज कई दिनों के बाद

पता नहीं कितने बरसों बाद...


आज मुद्दत बाद

बंद कमरे की छत का पंखा,

बल्ब की रौशनी पर कीट-पतंगे

जीभ लपलपाती छिपकली की गश्तें

घटती-बढ़ती बिजली, स्टेबलायज़र

कूलर की आवाज़

घड़ी की टिक-टिक

बोझ लगती

लड्डन* लगती

आज बहुत समय के बाद...


आज मुद्दत बाद

सारी थकान काफूर हुई

पीठ सहला

अम्बर दिखा

सप्त-ऋषियों के दर्शन हुए

ध्रुव तारे की लौ पहचानी

चाँद देखा

चाँदनी देखी

तारे देखे

सारे देखे

आज मुद्दत बाद रात देखी...


*कोकू- अंगूठे और तर्जनी को फैलाकर बनने वाला माप

*लड्डन- वह भारी लकड़ी, जिसे बैल, भैंस आदि के गले में लटकाया जाता है, ताकि उसके दौड़ने में बाधा बनी रहे।



 


8 फरवरी 1955 को साम्बा के गाँव गुढ़ा सलाथिया में जन्मे मोहन सिंह डोगरी के प्रसिद्ध नाटककार-कवि-लेखक-अनुवादक व संपादक हैं। विभिन्न विधाओं में इनकी अब तक 42 पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जिनमें 34 मूल, 2 अनुवाद, 6 संपादित किताबें हैं। लेखन के अतिरिक्त मोहन सिंह दूरदर्शन, आकाशवाणी, स्वतंत्र पत्रकारिता, साहित्य अकादमी, डुग्गर मंच, डोगरी संघर्ष मोर्चा से भी सम्बद्ध हैं। इन्हें एक रंगकर्मी और अभिनेता के रूप में भी पहचाना जाता है। साहित्य अकादमी दिल्ली से चार बार पुरस्कृत होने के अलावा दर्जनों अन्य सरकारी-ग़ैर सरकारी संस्थाओं से सम्मानित हुए हैं। इनकी कविताएँ अंग्रेज़ी और कुछ भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रकाशित हुई हैं। 2023 में इन्हें पद्मश्री सम्मान (साहित्य) से विभूषित किया गया। ईमेल : mohansimghduggar@gmail.com 


कमल जीत चौधरी हिन्दी कवि-लेखक व अनुवादक हैं। दर्जनों प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं, वेबसाइट्स, साझे संकलनों में इनकी कविताएँ, आलेख, अनुवाद और लघु कथाएँ छप चुकी हैं। इनके दो कविता संग्रह- 'हिन्दी का नमक' (2016), 'दुनिया का अंतिम घोषणापत्र' (2023) प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा इन्होंने जम्मू-कश्मीर की कविताई को रेखांकित करते हुए; 'मुझे आई डी कार्ड दिलाओ' (2018) शीर्षक से एक कविता-संग्रह संपादित किया है। इनकी कविताएँ मराठी, उड़िया, बांग्ला, पंजाबी और अँग्रेज़ी में अनूदित व प्रकाशित हुई हैं। ईमेल : kamal.j.choudhary@gmail.com 



2 Comments


Guest
Apr 06

भाई कमल जीत चौधरी द्वारा अनुदित की गई कविताओं के सुन्दर अनुवाद के लिए उनका आभार। और इन कविताओं कोको गोल चक्कर में स्थान देने के लिए सम्पादक महोदय का धन्यवाद।

Like

कमल जीत चौधरी
Apr 05

प्रिय संपादक, प्रणाम! इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद! 'गोल चक्कर' सक्रिय, सार्थक और ज़िंदाबाद रहे...


प्रिय पाठको, अभी तक के अनुभव से कह रहा हूँ, आप मेरी मातृभाषा के अच्छे कवियों को हमेशा प्यार देते आए हैं। आगे भी साथ बना रहे। धन्यवाद!


शुभेच्छु,

कमल जीत चौधरी

Like
bottom of page