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नवनीत पाण्डे की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Feb 19
  • 2 min read



पत्थर नहीं तोड़ रही थी


मैंने उसे केवल

इलाहाबाद की सड़कों पर ही नहीं

हर शहर

क़स्बे,

गाँव की गलियों

चौराहों पर देखा

वह

पत्थर नहीं तोड़ रही थी


पत्थरों से अपना सर फोड़ रही थी

बच्चा बिलख रहा था दूर पड़ा

उसके आंचल की दो बूँद दूध के लिए

वह लाचार बेबस

अपना लीर-लीर आंचल

सूख चुकी छातियां

पत्थरों के ढेर के बीच

एक कामान्ध को सौंप रही थी।



कहीं मेरी नीयत पर ही सवाल न उठ जाए...


सवाल उठाना चाहता था

पहाड़ो के खुरदरेपन

उनके नुकीलेपन

उनकी कठोरता

उनकी ठसक पर

पर डर गया

सच सुनकर

पहाड़ कहीं टूट न पड़ें

मुझ पर ही


सवाल उठाना चाहता था

नदियों के बहावों

उनके रास्तों

उनमें आने वाली बाढ़ों

मचने वाली तबाहियों

बहते-बहते अचानक सूख जाने पर

डर गया

सच सुनकर

नदियां कहीं मुझे ही न बहा ले जाएं


सवाल उठाना चाहता था

समंदर

सूरज, चाँद, धरती

पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं 

सभी चराचर पर भी

पर डर गया

कहीं

अपने सवालों पर

मुझे ही कटघरे में न खड़ा कर दिया जा

मेरी ही नीयत पर सवाल न उठा दिया जाए...।



तुम मुझे ऐसे प्रेम करो


जैसे किसान करता है

बीज, हल,

माटी से

जैसे ग़रीब 

दो जून की रोटी,

अपनी गरीबी से

जैसे पहाड़

अपने हाड़ों में रची

वनस्पति, जीवों से

जैसे कुएं

घटों-पनघटों से

नदियां

अपनी धार, मिठास से

समंदर

अपने खारेपन से

तुम मुझ से ऐसे प्रेम करो

जैसे हर कोई करता है प्रेम

अपने प्रेम से



झूठ, जो हमें सच बना कर परोसे जाते हैं 


क्या अमिताभ 

वाक़ई घड़ी से अपने कपड़े धोते हैं, 

नवरत्न तेल लगाते हैं, बीकाजी नमकीन खाते हैं?


क्या अक्षय

वाक़ई फॉर्च्यून आटे की रोटी, जुबान केसरी खाते है?


क्या आमिर ख़ान 

वाक़ई वीवो मोबाइल यूज करते हैं?


क्या ऐश्वर्या राय

वाक़ई लक्स, लोरियल यूज करती हैं?


क्या शाहरुख

वाक़ई कोक पीते हैं?


क्या जावेद अख़्तर 

वाकई डॉ आर्थो लगाते हैं?


झूठ, जो हमें सच बना कर परोसे जाते हैं 

सच बताएं


उनका कहा करने वाले बेवकूफ़ बनते हैं

और वे बेवकूफ़ बनाते हैं


बड़ी शान से करोड़ों बनाते हैं।



तुम मुझे कैसे ख़रीदोगे...


जब मैं जाता, सजता ही नहीं

किसी दुकान,

किसी हाट, मण्डी, बाज़ार में

कैसे लगाओगे मेरी बोली

तुम मुझे कैसे ख़रीदोगे?



 


नवनीत पाण्डे हिन्दी व राजस्थानी दोनों में पिछले पैंतीस बरसों से सृजनरत हैं।


प्रकाशन : 

हिन्दी : सच के आस-पास, छूटे हुए संदर्भ, जैसे जिनके धनुष, सुनो मुक्तिबोध एवं अन्य कविताएँ, जब भी देह होती हूँ, नवनीत पाण्डे : चयनित कविताएँ, तटस्थ कोई नहीं होता (कविता संग्रह); यह मैं ही हूँ, हमें तो मालूम न था (लघु नाटक)।


राजस्थानी : लुकमीचणी, लाडेसर (बाल कविताएँ), माटीजूण, दूजो छैड़ो (उपन्यास), हेत रा रंग (कहानी संग्रह)।


अनुवाद :  1084वें री मा - महाश्वेता देवी के चर्चित बांग्ला उपन्यास, नासिरा शर्मा के अकादेमी पुरस्कृत उपन्यास पारिजात व केदारनाथ अग्रवाल के अकादेमी पुरस्कृत काव्य संग्रह अपूर्वा का राजस्थानी अनुवाद। 


पुरस्कार/सम्मान : लाडेसर (बाल कविताएँ) को राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी का ‘जवाहर लाल नेहरु पुरस्कार’, हिन्दी कविता संग्रह ‘सच के आस-पास’ को राजस्थान साहित्य अकादमी का ‘सुमनेश जोशी पुरस्कार’, लघु नाटक ‘यह मैं ही हूँ’ जवाहर कला केंद्र से पुरस्कृत होने के अलावा ‘राव बीकाजी संस्थान-बीकानेर’ द्वारा प्रदत्त सालाना केदारनाथ अग्रवाल साहित्य सम्मान।



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