पद्मनाभ गौतम की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Apr 4
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भगदड़
क्या वह आदमी जिसने खोया है
मक्का की भगदड़ में अपनी माँ को
हँस सकेगा
महाकुम्भ की भगदड़ में मरते लोगों पर
या वह, जिसने खोया है
अपना बेटा महाकुम्भ की भगदड़ में
अब कभी हँसेगा
हज में मची भगदड़ पर
भगदड़ के बाद
हज और महाकुम्भ में
लाशें थीं एक समान मुद्राओं में
चेहरों पर अंतिम भाव
बदहवासी, भय और हताशा के
जब मचती है भगदड़
तब मरता नहीं है धर्म
मरती नहीं है कोई किताब
मरता है तो बस एक आदमी
वह अब किसी धर्म का अनुयायी नहीं
पर अब भी होता है
किसी का पिता, किसी का भाई
किसी की माँ, बहन, बेटी
किसी का आसरा, किसी की उम्मीद
मुझे नहीं पता कि धर्मस्थलों में मरकर,
वह भी भगदड़ की अकाल मृत्यु में,
मिलता होगा कैसा स्वर्ग
पर मैं बखूबी जानता हूँ
पिता को अकालमृत्यु में खो देने पर
मिलने वाले नर्क को।
हवाई जहाज़ में मुक्तिबोध के साथ
'पार्टनर, यहाँ स्मोक सेंसर लगे हैं, धुआँ मत उड़ाइएगा -
यह वह युग नहीं, जब हवाई जहाज में एश-ट्रे कराई जाती थी उपलब्ध'
- हवाई जहाज में आज हैं मेरे साथ मुक्तिबोध
'ओह, बहुत सभ्य है यह युग तब तो'- कहते हैं मुक्तिबोध -
'मेरे इन कपड़ों और तरीकों से यह लोग समझेंगे तुम्हें भी कालातीत,
यह भाषा जो हम बोल रहे, यह और कोई नहीं बोलता इर्द-गिर्द'!
मैं कहता हूँ हँस कर -
'ऐसा मत सोचिए, हम लोग अंग्रेज़ियत में भी
उतने ही कमज़ोर हैं
जितना कि अपने हिन्दुस्तानी होने में’!
सच कहा था मुक्तिबोध ने, देख मुक्तिबोध को साथ
समझते हैं सब मुझे बीते युग का आदमी
मेरी देह पर प्रीमियम कॉटन शर्ट दिखता है उन्हें लंकलाट
सोच रहे हैं लोग, किसी सेठ ने कटा दिया होगा
हम कैटल-क्लास का टिकट जहाज में
वैसे तो इस विमान की एक-एक सीट कैटल-क्लास है
पर हम कैटल-क्लास में भी कैटल-क्लास हैं
हम पर वह लोग भी मुस्कुराते हैं,
जो यह नहीं जानते कि
किस बटन को दबाने से आएँगी परिचारिकाएँ
किससे जलेगी पढ़ने की निजी बत्ती,
वह जो आयल सीट मिलने से हैं खिन्न,
वह, जो विण्डो सीट से चिपक कर झाँक रहे बाहर लगातार
वह, जो 'टेक-ऑफ' को बहुत बढ़िया 'डिपार्चर' कह बजा रहे ताली
जो डर गए थे शौचालय में वैक्यूम की तेज आवाज़ से
जो जपने लगे राम-राम ज़रा से टर्बुलेन्स से -
सब हँस रहे हमारे हिन्दी में बतियाने पर
‘तमाशा है, तमाशा है’
हँसते हैं मुक्तिबोध
और बेझिझक निकाल लेते हैं सिगरेट
'एक सिगरेट तो बनती है, पार्टनर'
उनके मनोरंजन के लिए मैंने निकाला है अपने थैले से स्प्रे
उड़ा दिया है परिचारिका के सहयोग से ज़रा सा इर्द-गिर्द!
'यह क्या है?' - पूछते हैं मुक्तिबोध
‘यह कार्पोरेटी ज़बान मिला फॉग है,
यहाँ आजकल फॉग ही चलता है
मेहनत से काबू कर डाल रखा है इस कण्टेनर में,
ज़रा सी सुगन्ध बिरादरी को कर देती है मदमस्त’
'कहो ना बूँक रहे हो फारसी!’-हँसते हैं मुक्तिबोध
‘इत्र है-इत्र है’
इत्र के नशे में सभी हैं जानने को उत्सुक,
कौन हैं मुक्तिबोध?
क्या उनको साथ लेकर चलना फैशन है?
किस तरह सीपिआ-टोन हुए उनके कपड़े?
कहाँ से खरीदी मुक्तिबोध ने इस डिजाइन की कमीज?
सभी उँगलियों से छूना चाहते हैं लंकलाट की फैब्रिक को!
लोग कहते हैं मुक्तिबोध से,
'श्रीमान, आप निस्संकोच जला लें सिगरेट इस हवाई जहाज में'
पर हमारा ध्यान अब कहीं और है,
बातों-बातों में वह ले जाते हैं मुझे अपने भीतर की गहरी खोह में
साँवले जल के तल में चमकती मणियाँ दिखाते हैं
हम मशगूल हैं अपनी गुफ्तगू में 'अँधेरे में',
पर अब उनकी खोह का अँधेरा रिस रहा है विमान में
वे बता रहे मुझे उस शिशु के बारे में
जिसे गाँधी जी जैसा दिखता आदमी
सौंप गया था उन्हें रात के अँधेरे में
वह हैरान हैं, गायब है शिशु उनके कन्धे से!
मुझसे पूछते हैं, ‘देखा है उस शिशु को,
इस विमान में तो बिलकुल नहीं दीखता वह’?
क्या कहूँ मैं, जानता हूँ इतने सालों बाद बेहतर
किस महुए के झाड़ के नीचे दफ़्न है शिशु,
जहाँ तोड़ दी गयी है ऊपर लटकती टहनी
और टपक रहा है महुए का दूध
पर क़ब्र की ऊपरी सतह पर रखे हैं पत्थर
मैं यह जानता हूँ, शिशु तक नहीं पहुँच पाएगा वह दूध
लेकिन अबोध शिशु, बन नहीं पाया वह कोई प्रेत ही
खामोश हूँ, चल रहा हूँ सुरंग में चुपचाप
अचानक परिचारक करते हैं बंद विमान की बत्तियाँ
यह लैंडिग का समय है,
जल्दी-जल्दी निकल कर अँधेरी खोह से,
एकाकार हो रहे हम विमान के अँधेरे से
मुक्तिबोध कहते हैं – ‘यह विमान पहले भी कब था उजाले में,
यह तो सदा से अँधेरे में ही रहा आया है,
वह बोरसी में पके दूध सा गाढ़ा उजाला,
दरअसल अँधेरा है पार्टनर!’
उतराई जारी है
उतराई पर होने वाला कानों का दर्द,
अब और अधिक टीसता है
लैंडिंग पर मैं हँस कर कहता हूँ परिहास में -
'लैंडिंग रनवे पर है या है यह कोई खेत ही!'
मेरी शरारत पर मुस्कुराते हैं मुक्तिबोध
पर हँसते हैं विण्डो सीट वाले, आयल सीट वाले, 'हैण्डू-वाश' वाले,
हर वाक्य के अंत में 'ना-ना' लगाकर अंग्रेजी बोलने वाले,
कमोड के फ्लश की ‘छाँय’ से डर जाने वाले,
टर्बुलेन्स से डर कर अभी-अभी जिन्होंने मानी है मनौती
उनके लिए यह इलीट है, हास्य है,
‘पार्टनर, हम उपहास्य नहीं, हम गँवार नहीं, हम कैटल-क्लास नहीं’!
मुस्कुराकर कहते हैं मुक्तिबोध-
'अगली बार त्रिलोचन जी को ले आना साथ,
उनको भी दिखाना यह इत्र का तमाशा'।
मैंने कहा - 'निश्चिंत रहें,
पिछली दफ़ा एक साथ पूरे पचास कवि थे मेरे साथ!'
गहरी नींद में है आदमियत
मै अक्सर कुछ होते-होते नहीं हो जाता हूँ
मैं कुछ नहीं होते-होते, अक्सर कुछ हो भी जाता हूँ
मै पकड़ा भी जाता हूँ, मै नहीं भी पकड़ा जाता हूँ
कुछ परछाइयाँ चलती हैं साथ-साथ
हो सकता है हँसिये लेकर दौड़ते आएँ इधर वाले और
काट दें मुझे मेरे विश्वासों से जोड़ती गर्भनाल से,
दफ़्न कर दें मुझे जीवित ज़मीन में
कुछ होने पर हो सकता है काट डालें उधर वाले
मुझे छोटे झाड़ के जंगल सा
इधर वाले भी, उधर वाले भी,
अब दोनों ही लगते हैं पीछा करते साये
धरती पर क्या है ऐसा एक हल
जो जोत सके इधर और उधर का विभाजक
या एक ऐसा पाटा, जो पाट सके विभाजन को
घबराकर खोजता हूँ खोल
वक़्त आने पर घुस सकूँ जिसमें घोंघे की तरह
यह खोल देह के लिए भी है
यह खोल दिमाग़ के लिए भी है
चेतन से अधिक अवचेतन की चिन्ता है
यह खोल दोनों के लिए भी हो सकता है।
मुझे न पाकर हो सकता है
एक-दूसरे को ही मार डालें इधर-उधर वाले
मैं तब बचकर भी क्या करूँगा
आदमी में आदमियत इतनी गहरी नींद में है
कि यह कॉलर पकड़ कर झिंझोड़े भी नहीं उठती
खाद-पानी डालकर
उगाई नहीं जा सकती आदमियत,
इसके बीज नहीं होते
आदमियत सूख गयी है अपने ही खोल के भीतर
कुछ ने उसे लटका रखा है बखरी में खूँटी पर,
क्योंकि इस वक़्त वह कमज़ोर करती है उनको
करती है आदमियत नाखूनों से मरहम की बात
नापसंद है यह इस सुलगते समय को,
जहाँ उनचास के पारे में भी लोग खोज लेते हैं
उबलती चाय में सुकून
सुलगते समय में भी आदमियत यह जानती है कि
वह बस आदमियत है
वह इधर और उधर नहीं जानती
क्या मेरा खोल बचा पाएगा जान उन बमों से
जो ठीक वहाँ जाकर फटते हैं,
जहाँ जाकर छिपता है आदमी
बमों के बटन हैं बावन पत्तों में जबरन घुसे जोकरों के पास
वे बहुत कमज़ोर हैं और इसी बात का तो डर है
ताकतवर से ज़्यादा डर बिना रीढ़ के आदमी से लगता है
जब एक मस्कुलर डायस्ट्रॉफी से जूझता आदमी
मन ही मन तड़पता है कि वह भी कर सके
अपनी पसंदीदा लड़की से अनुभूतियों भरा प्रेम,
एक सेरिब्रल पाल्सी से जूझती बच्ची जब
पाँच सीधे कदम नहीं चल सकती माँ की ओर,
तब उसे पालने की माँ की हिम्मत देखते-देखते
जोकर मुझे लगने लगते हैं और, और अधिक कमज़ोर
मरते हुए जोकर थमा जाते हैं बमों के बटन
किसी अपने से बेहतर जोकर के हाथ में
न जाने कितनी अशक्तताओं के मेडल पहने जोकर,
जोकर नहीं नपुंसकता के अवसाद पर जमा अर्धतरल हैं
बमों के रिमोट हैं क्रूरताओं में
अवसाद-मुक्ति ढूँढ़ती नपुंसक चिपचिपाहटों के हाथ।
जानता हूँ, घोंघे के खोल बमों का सामना नहीं कर सकते
पर डटकर बता सकते हैं उन्हें इतना ज़रूर,
कि उन्हें पसन्द नहीं करता कोई
बम ख़ूबसूरत नहीं हैं वसंत की तरह,
बम बारिश की फुहार की तरह भिगो नहीं सकते तन और मन
पतझड़ में एक बिना आवाज़ झरती पत्ती की तरह
आहिस्ता-आहिस्ता झर नहीं सकते हैं बम
जोकरों से बचते हुए मैं पढ़ रहा हूँ एक किताब
जो बता रही है कि स्वर्ग का रास्ता
धरती के गुरुत्वाकर्षण की परिधि से बाहर नहीं जाता
वह यहीं-कहीं से होकर निकलता है
काट दिये गये छोटे झाड़ के जंगलों के बीच से
स्वर्ग का रास्ता धरती के भीतर से,
जहाँ कोई विभाजक रेखा नहीं
धरती के इधर को धरती के उधर से भी जोड़ता है।
इस इधर को उस उधर से
उस इधर को इस उधर से
इधर-उधरों को उधर-इधरों से जोड़ता है स्वर्ग का रास्ता।
नियति
जब न्यूटन ने बताया
हर क्रिया के विपरीत होती है प्रतिक्रिया
बल के विरुद्ध प्रतिबल
तब परिभाषित कर रहा था वह नियति को
आइंन्स्टीन ने कहा कि ऊर्जा को
न तो उत्पन्न किया जा सकता है और न ही नष्ट
वह बता रहा था परिभाषा नियति की
वह कर रहा था परिभाषित ब्रह्मांड को, उसकी नियति को
न्यूटन और आइंस्टीन थे अनभिज्ञ
कि नियति का अर्थ है तय मान लेना
सकारण-अकारण को एक समान
अँधकूप में छलाँग लगाना
रेल की पाँतो पर चलते मृत्यु को अवश्यम्भावी बताना
भीड़ के रेलों में कुचले जाने की सम्भावना होने पर भी
कुछ न होने के विश्वास के साथ भीड़ बन जाना
इन सबका भी अर्थ हो सकता है नियति
और
अगर कोई ठग ब्याह लाए एक लड़की
झूठी डिग्री, झूठी नौकरी
बढ़ा-चढ़ा कर बताई मिल्कियत के धोखे में
लूट ली जाए पुश्तैनी जोत बरगाहदार से,
या ऐसा ही सब कुछ
इन जैसे सब कामों के प्रति
दी जा सकती है सांत्वना नियति के नाम पर
नियति चलती बस में बलात्कार को पूर्व-नियत कर देती है
यह बलात्कारी की आत्महत्या को पूर्व-नियत कर देती है
यह हत्यारे की फाँसी को पूर्व-नियत कर देती है
विकलांग चेतना के पास नियति वह तर्क है
जो हर घटित और अघटित को, हर अकारण को
बना देता है सकारण
जब कहते हैं नरेश सक्सेना,
कि आदमी के गिरने के कोई नियम नहीं
तब वह परिभाषित करते हैं
आदमी के अन्दर के उस चालाक आदमी को
जो हर अनियमित को कर देता है नियमित
एक अभौतिक-अविश्वसनीय-अस्तित्वहीन
नियम के अंतर्गत
मनुष्य का मनुष्यता से विचलन नियति है,
आइंस्टीन नहीं खोज पाए थे अनंत का हल
यह सबसे बड़ी ताकत है नियति की
यह अंतिम भ्रम भी है नियति का
जिसे टूटना है एक दिन अवश्य हीI
हत्यारे सदैव होते आये हैं पराजित
दुनिया के सबसे महंगे और
सबसे ख़ूबसूरत खंजर से
हुई होंगी हत्याएँ ही
यद्यपि शमशीरों की तुलना में
वे कम ही किए गए होंगे इस्तेमाल
बदसूरत खंजरों ने
ख़ूबसूरत दिखने के लिए
की होंगी अधिक निर्मम हत्याएँ
फिर भी पर्याप्त सबूत हैं कि
सृष्टि के आरंभ से
दुनिया में जितने खंजर थे
उससे अधिक रहे आए मनुष्य
हर हाल में
बाज खाली नहीं कर पाए
चिड़ियों के झुण्ड से आकाश को,
शेर जंगल को हिरनों से,
और मगरमच्छ मछलियों से नदी को
यद्यपि उनके द्वारा की गईं
हत्याएँ नैतिक व आवश्यक थीं,
अनादिकाल से तय करते आए हैं
पृथ्वी पर जीवन की श्रेष्ठता
चिड़ियों का कलरव,
हिरणो की कुलाँचें
मछलियों के तैरने की लय
मनुष्य का जीवन-अनुराग ही
हत्यारे सदा रहे छिपकर
घात लगाए अंधेरों में,
तहखानों में, झाड़ियों में,
निर्जनों में, सायों में, छद्म वेशभूषाओं में
हत्यारों की छिपकर रहने की मजबूरी ही
आदिस्मारक है हत्यारों की पराजय काI
खली की तरह निचोड़ा गया आदमी
जिस अवदान से अभिसिंचित होगा
समृद्ध दुनिया का वृक्ष
वह कहलाएगा बलिदान भी
परदादा का 100 एकड़ का मुरब्बा
रह गया है दो-दो एकड़ की जोत
ज़मींदारी है, इतनी ही गर्मी कोख में
बरगाहदारों के जवान लड़के
जा चुके शहर बनकर मजूर
पीछे बची हैं रील बनाती जनानियाँ
पाँच एकड़ की जोत भी
हल चला कर नहीं ख़रीद पाती
मोबाइल, डाटा, बीवी का सिंगार
सरकार के पास नौकरी नहीं,
लोकतंत्र के ‘फ्री-फ्री-फ्री’ में पस्त है सरकार
दुकान खोलने के लिए इल्म
बालू से तेल की कला नहीं है पास
समय का खेल
अब चाकरी अधम नहीं एकमात्र बची राह है
एमबीए की डिग्री अब इन्वेस्टमेंट
जिसका गारंटेड रिटर्न
बारह घण्टे चलने वाला नौकरी का हल,
शहर की गन्दी गलियों में सीलन भरे मकान,
मेट्रो के धक्के
जिलाए रखने को रोज़ के दस घंटे अपने
मिर्च-तेल का स्वाद, सस्ती व्हिस्की की नींद
बेटे की यूनिफाॅर्म, बीवी की ख़्वाहिशें
पापा का कैंसर, अम्मा का गठिया,
बीबी, किटी, रील, थीम
चक्की चल रही छह दिन, सात दिन, सप्ताह,
महीने, साल, दशक, उम्र
बारह घंटे रोज़, दो घंटे सड़कों पर भागते
ठीहे और काम के बीच
चक्की में सामने से निकल रहीं ख़्वाहिशें
एक बगल से उफ़
अंत में सूखी खली की तरह
निचोड़ा गया आदमी
शाॅर्ट टर्म मेमोरी लॉस
पैन्क्रियाइटिस और सिरोइसिस का दर्द
टुटपुँजिया पेंशन स्कीम
महीने भर के ज़रूरी दर्दनाशक
एक दिन जोत कर अपने बच्चों को
बारह घंटे छह दिन चलने वाले नौकरी के हल में
चल पड़ेगा वह बनाकर एक समृद्ध ख़ूबसूरत दुनिया !
पद्मनाभ गौतम कवि-गद्यकार हैं। समकालीन साहित्य की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं कृति 'ओर', सर्वनाम, आकंठ, काव्यम, कथाक्रम, अक्षरपर्व, प्रगतिशील वसुधा, अक्षर शिल्पी, दुनिया इन दिनों, सिताब दियारा, पहली बार, हमरंग, देशबंधु, शैक्षिक-दखल, संकलन ‘कविता छत्तीसगढ़’ इत्यादि में रचनाएँ प्रकाशित I आकाशवाणी अंबिकापुर से वार्ता एवं विविधा में रचनाओं का प्रसारण I सन् 2004 में एक ग़ज़ल संग्रह ‘कुछ विषम सा’ जलेस के सहयोग से प्रकाशितI कविता संग्रह 'तितली की मृत्यु का प्रातःकाल' प्रेस मेंI
ईमेल : pmishrageo@gmail.com
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