फिलिस्तीनी बच्चे : कुछ कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jan 8
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फिलिस्तीनी बच्चे : कुछ कविताएँ
अनुवाद एवं प्रस्तुति : यादवेन्द्र
चार साल की बच्ची की डायरी से
–हनान मिखाइल अशरावी
कल आने पर
पट्टियाँ हट जाएंगी
कैसा लगेगा जब
मुझे संतरा आधा दिखाई देगा?
बची हुई इकलौती आँख से
सेब आधा
और मेरी माँ का चेहरा भी
आधा ही दिखाई देगा।
मुझे बुलेट दिखाई नहीं पड़ी
लेकिन उसने जो दर्द दिया
वह मेरे माथे पर
भरपूर झन्नाटे के साथ महसूस हुआ।
भला कैसे भूल सकती हूँ
डगमग हाथों में बड़ी-सी बंदूक़ थामे
उस फ़ौजी की सूरत
उसकी आँखों में देखकर भी
मैं समझ नहीं पाई उसका इरादा
कि वह करने क्या जा रहा है?
काश, अपनी आँखें बंद कर भी
मैं देख, समझ पाती उसकी सूरत
तो यह समझ आता
कि हम सब के दिमाग़ में
अतिरिक्त होती हैं एक जोड़ी आँखें
जो ऊपर वाला इसीलिए देता है
कि देखने के काम आएं
जब कोई ऐसे फोड़ दे हमारी आँखें।
अगले महीने जन्मदिन पर
तोहफ़े में मुझे शीशे की आँखें मिल जाएँ
तो हो सकता है
सब चीज़ें मुझे गोल दिखाई देने लगें
और बीच में थोड़ी मोटी भी
अब तक तो मुझे यह दुनिया
एकदम अटपटी दिखाई देती रही है
विचित्र और बेगानी।
मैंने सुना है कि नौ महीने की
किसी बच्ची की एक आँख भी
ऐसे ही फोड़ डाली उसने
क्या यह वही फ़ौजी है
जिसने मेरी आँख में गोली मारी थी?
उस फ़ौजी को छोटी लड़कियाँ
बिल्कुल नहीं सुहातीं
आँखों में शूल की तरह चुभती हैं
क्योंकि वे उसे सामने से
आँखों में आँखें डालकर देखती हैं।
मैं तो बड़ी हो गई, लगभग चार साल की
मैं दुनिया बहुत देख चुकी अब तक
लेकिन वह बेचारी तो बच्ची है
उसने अभी कुछ भी नहीं देखा
उसकी आँखों में
बेहतर दुनिया का सपना था।
(PGR Nair ब्लॉग से साभार)
हाथ गर्मजोशी से मिलाने के लिए हैं
– फातेमा सैदाम, उम्र नौ साल
(अक्टूबर 2023 में इजराइली बमबारी में मारी गई गाज़ा की बच्ची)
आँखें देखने के लिए हैं
और समझने के लिए कि सूरज है
भाषा मुबारक़बाद देने के लिए है
और है हँसी-मज़ाक के लिए भी
टाँगें आराम से चलने-फिरने के लिए हैं
और हैं वक़्त पर भागने के लिए भी
हाथ हैं मिलाने के लिए
दोस्तों के साथ गर्मजोशी से
बंदूक़ से गोली दागने के लिए तो
हरगिज़ नहीं।
चाँद के साथ एकालाप
– हाला जोहा, उम्र चौदह साल
ओ चम चम चमकते चाँद
मैं जो पूछूँ जवाब दोगे?
क्या हमारे दुःख कभी दूर होंगे?
हम जिस अँधेरे में घिरे हुए हैं
क्या वह तुम्हें अच्छा लगता है?
हर रोज़ मैं अपने कमरे में छुप कर
रोती हूँ, घुटती हूँ
पर जैसे ही निगाह ऊपर उठाती हूँ
तुम्हारी चमक से
रोशन दिखता है आकाश
मैं उम्मीद से भर जाती हूँ
मेरे दुःख के काले बादल
तुम्हें देखकर छँट जाते हैं।
(दोनों कविताएँ "मून टेल मी द ट्रुथ" कविता संकलन और हैंड्स अप प्रोजेक्ट से साभार)
हम रिफ्यूजी कैंपों के बच्चे हैं
वी आर द चिल्ड्रन ऑफ द कैंप (लेखक : अब्देलफतह अबूसरूर) से एक उद्धरण :
यह बच्चों पर केंद्रित नाटक है। इसमें वे उन गाँवों के नाम एक-एक कर दर्शकों को बताते हैं जो नक्बा के दौरान इजराइलियों द्वारा नष्ट कर दिए गए। उन्हीं गाँवों में दो-तीन पीढ़ी पहले उनके परिजन रहते थे— अब अव्वल तो वे गाँव नहीं हैं और वहाँ नई बसावटें बसा दी गई हैं...या हैं भी तो उनके पुराने नाम बदलकर नए नाम रख दिए गए हैं। वे एक-एक कर वेस्ट बैंक, गाज़ा और येरूशलम के रिफ्यूजी कैंपों के नाम लेते हैं जहाँ रहते हुए फिलिस्तीनियों की पीढ़ियाँ गुज़र गईं। वे कहते हैं :
"हम यहाँ रहते हैं, अपने ही मुल्क के अंदर लेकिन मुल्क से निष्कासित।"
हम रिफ्यूजी कैंपों के बच्चे हैं
हम रिफ्यूजियों के संतानें हैं
हम जलावतनी के बच्चे हैं
हम प्रतिरोध के प्रेमी हैं
हमारी धरती उन्होंने हड़प ली
हमें दरबदर कर दिया गया
हमें टेंटों में रहने को मजबूर किया गया
हमें रिफ्यूजी बना कर छोड़ दिया गया
हमारे जैतून के पेड़ों को उजाड़ दिया हमारी धरती पर अपनी बस्तियाँ बसा लीं
उन्होंने यह झूठ फैलाया कि हमारा कोई इतिहास नहीं है
उनको लगता है हम कभी रहे ही नहीं
इस धरती पर
जब हम नहीं तो हमारे गाँव कैसे
उन्होंने हमारे गाँव उजाड़ डाले
उन्होंने भूलभुलैया बनाई
और हमें उसके अंदर फेंक दिया
वही हैं जिन्होंने हमारे अंदर इतना गुस्सा भर दिया
वह हमें इंसान नहीं, कीड़े-मकोड़े समझते हैं
पर एक दिन हमारा भी बसंत आएगा
हमारे भी आकाश में सूरज चमकेगा
अपने दिलों की आज़ादी के बारे में
हम भी अपने गीत गाएंगे
जब-जब हम येरूशलम की तरफ देखेंगे
हम भी आज़ादी के गीत गाएंगे
हम भूलेंगे नहीं
हम भूलेंगे नहीं
हम कभी भूल सकते नहीं
हम कभी भूल सकते नहीं।
इसके बाद बाल कलाकार अपने अधिकारों की बात करते हैं, एक-एक कर उन्हें गिनाते हैं :
आज़ादी का अधिकार
अपने घरों को लौटने का अधिकार
वे जहाँ चाहें वहाँ रहने का अधिकार
पढ़ाई करने और खेलने का अधिकार आधुनिक स्कूलों का अधिकार
अपने को अभिव्यक्त करने का अधिकार आसपास सफ़ाई और हरे-भरे परिवेश का अधिकार
और सबसे बढ़कर, बच्चों की तरह बच्चे बन कर रहने का अधिकार।
(बेथेलहम के अल रोवाद कल्चरल एंड आर्ट्स सोसाइटी की प्रस्तुति)
यादवेन्द्र वरिष्ठ लेखक एवं अनुवादक हैं। हिंदी के प्रतिष्ठित अख़बारों तथा पत्रिकाओं में प्रचुर विज्ञान लेखन। विश्व साहित्य के अनुवाद की आठ किताबें प्रकाशित। हाल में फिलिस्तीन की समकालीन कविता का एक संकलन 'घर लौटने का सपना' शीर्षक से नवारुण प्रकाशन से छपा। साइकिल पर केन्द्रित दो किताबों का संपादन। सिनेमा, फोटोग्राफी और घुमक्कड़ी का शौक। पटना में निवास। ईमेल : yapandey@gmail.com
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