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ऋत्विक् की कविताएँ

  • golchakkarpatrika
  • Mar 5
  • 3 min read



कल


कितना भयानक शब्द है —

"कल"

बिल्कुल मृत्यु की तरह।

शाम ढलेगी

रात बीतेगी,

और

उसके बाद आयेगा

"कल"

जैसे आती है मृत्य।

(अनिवार्य है)


हर शाम/रात के बाद

"कल" आता  है—

सब सामान सूटकेस में बांधकर—

वही ऊब

वही कशमकश 

वही उहापोह

वही जीवन

वही ऊल-जलूल कार्य।


चलता जाता है

जीवन

मशीन की तरह

जैसे

किसी ने इसे 

ऑन करके छोड़ दिया हो 

संसार क्षेत्र में।


मैं? हाँ मैं!

बीते हुए "आज"

और आने वाले "कल"

के बीच बैठा

मध्य-रात्रि को 

सोचता हूँ

जाने क्या? जाने क्या?


मैं सोचता हूँ 

कभी बहुत कुछ

कभी थोड़ा-बहुत 

कहते है पंडितजन—

सोचने के कहाँ पैसे लगते है?


मैं सोचता हूँ

हृदय पर हुए 

वज्रपात के बारे में 

युद्ध में हुए

रक्तपात के बारे में 

कभी सारी 

कायनात के बारे में

तो कभी 

आत्मघात के बारे में।

 

मैं बीते हुए "आज"

और आने वाले "कल"

के बीच बैठा 

मध्यरात्रि को 

सोचता हूँ 

जीवन के

प्रभात के बारे में।


मैं सोचता हूँ 

किंतु 

शाम ढलती है

रात बीतती है,

और

उसके बाद आता है

"कल"

जैसे आती है मृत्यु।



दुख 


बिंब एवं प्रतीकों का लिया सहारा

अलंकृत किया अलंकारों से

उतारा कविता में 

पिरोया गद्य में भी।

संगीत में बांधा,

गीत बना के उभारा 

कितनी कहानियों-उपन्यासों में समेटा 

कितने काव्यांशो- महाकाव्यों में बिखेरा 

"उस एक दुख को"।

किन्तु 

वह ठहरा दु:ख ही।

इतनी साज-सज्जा, 

इतने हंगामे,

इतने आवरण, 

इतने तमाशे

इतने धूमधाम के बाद भी

वह रहा दुःख ही,

बिल्कुल वैसा

जैसा होता आया है

"दुःख" युगों-युगों से — 

"अप्रिय, असहनीय, असुंदर"।



सार्थ 

(प्रसिद्ध कन्नड़ उपन्यासकर एस.एल. भैरप्पा के “सार्थ” उपन्यास पर)


जीवन का सार्थ

बढ़ता जाता है

आगे, आगे और आगे,

पिशाचिनी निरर्थकता के शाप से

घेरती जाती है

शून्यता...!

ओ! नागभट्ट!*

मैं भी खोजता हूँ

स्मृति और आकांक्षा 

के बीच वर्तमान को…

क्षणिक और अस्थिर 

के बीच शाश्वत को...

किंतु-किंतु 

घेर-घेर जाती है शून्यता।


किस, किस पथ से भटकते हुए 

उस एक "शाश्वत और वर्तमान" को खोजते हुए

पहुँचे तुम कहाँ-कहाँ

पाया तुमने क्या-क्या?


क्षण-क्षण को जी लेने

की कोशिश में,

प्रत्येक क्षण सत्य खोजने 

की कोशिश में 

घेरती गईं

सर्पिणी सी स्मृतियां 

दुरात्मा सी आकांक्षाएं 

हाय हाय, नागभट्ट!

पा लिया क्या क्या?

पहुँच गए कहाँ कहाँ!


यह व्याकुलता, यह अस्थिरता 

यह खोज सत्य की या जीवन की

यह संघर्ष क्षणिक और शाश्वत का

यह द्वंद्व स्मृति और आकांक्षा का,

बताओ

पा लिया इसमें क्या?

बताओ

पहुँच गए कहाँ?

हो अब भी खड़े वहीं 

हो अब भी अड़े वहीं 


जीवन का सार्थ 

बढ़ता जाता है

आगे आगे और आगे

घेर-घेर जाती है शून्यता..!

(नागभट्ट* - उपन्यास का मुख्य पात्र)



क्रोध

             "क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः

              स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति "


उसे रोका जा सकता था।

किसे रोका जा सकता था?

"क्रोध को"।


वह आता है 

तूफान की तरह और 

धकेल देता है मुझे 

अपने प्रियजनों से दूर,

किसी अनजान, अनाम, अँधेरे कोने में। 


वह भभकता है 

आग की तरह और

जलाता है 

सब स्मृतियों के साथ मुझे भी।


वह पथ निर्माण करता है नर्क का...

जिस पर चल कर मैं 

स्वयं ही गिर जाता हूँ

अविवेक की खाई में।


जानता हूँ

"क्रोधाद्भवति संमोहः"

की बात...

किन्तु वह तो 

रक्तबीज की तरह 

उपजता है फिर-फिर। 


विध्वंस का उपासक वह

उथल-पुथल मचा देता है

हृदय नगरी में।


इसीलिए कहते है जगत्पति 

"उसे रोका जा सकता है"

और बचाया जा सकता है

स्वयं को

"बुद्धिनाश" से।



हाइकु 


शाम हसीन 

याद का एक तारा 

चमक उठा{१}


याद आया है

बरसो बाद सुख

दुखी हुआ मैं{२}


सफ़ेद सूर्य

हज़ारों लाल चाँद 

उफ़! ये स्वप्न {३}




 


ऋत्विक् नवयुवा कवि हैं। वह राजस्थान के जालौर जिले के सांचौर से हैं। स्नातक तृतीय वर्ष में अध्ययनरत। हिंदी में कविताओं का लेखन और हिंदी, राजस्थानी, गुजराती के अलावा विविध भारतीय भाषा की अनेक कृतियों का हिंदी और अँग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से अध्ययन। ऋत्विक् की कविताएँ इससे पहले सदानीरा वेब पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी हैं।


4 comentários


ललन चतुर्वेदी
05 de mar.

अच्छी कविताएं हैं। गोलचक्कर ने अपनी अलग पहचान बना ली है।

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संजय जोशी
05 de mar.

सुन्दर रचनाएँ

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आशुतोष प्रसिद्ध
05 de mar.

बहुत सुंदर कविता। वर्तमान की सोच के साथ भविष्य की कविता । ऋत्विक को प्यार 🌻

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नीरज
05 de mar.

अच्छी कविताएं हैं। बधाई

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