शब्द शरीर
- golchakkarpatrika
- Feb 15
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कभी-कभी जब मैं ख़ामोश बैठा सोच रहा होता हूँ तो सोचता हूँ कि मैं क्यूँ सोचता हूँ..? अब से कुछ नहीं सोचूँगा, पर ये सब बातें भी मैं सोचते हुए ही सोच पाता हूँ। पता नहीं कितनी ऐसी क्रियाएं हैं जिन्हें हम क्रिया समझते ही नहीं फिर भी करते रहते हैं। जाने क्यूँ ! पर तुम जानती हो, ख़ामोशी जब-जब मुझ पर छा जाती है, ढेरों सवालों का जखीरा लेकर आती है। इतना बोलते-बोलते मैं न जाने किस विचार में खो गया कि चुप हो गया।
कुछ घड़ी मेरे बालों में हाथ फेरने के बाद उसने कहा, “जानते हो, सोचना ग़लत नहीं है, पर ग़लत सोचना ग़लत होता है।” मैं एकदम उसके कन्धे पर चित्त पड़ा बोल पड़ा, “ग़लत-सही का निर्धारण कैसे करें..?” कितना कुछ ऐसा है जो मैं अपनी समझ में सही करता हूँ पर वही दूसरे के लिए ग़लत होता है। मैं कभी-कभी ख़ुद को कर्म और अकर्म के बीच इतना उलझा हुआ पाता हूँ कि मन करता है सब छोड़ के भाग जाऊँ, पर फिर सोचता हूँ, कहाँ भाग कर जाऊँगा? क्या दुनिया में ऐसी भी कोई जगह है, जहाँ से फिर भागने का मन न हो....? अंदर से ही जवाब आता है, ऐसी कोई जगह नहीं ।
जीवन भर मृत्यु चाहने वालों के पास जब मृत्यु पहुँचती है तो वो भागते फिरते हैं। भागने वालों के लिए कोई भी दुनिया सुकून भरी नहीं हो सकती।
कितना अजीब है न ये सब कि कोई जवाब ही नहीं मिलता। उल्टा, जवाब भी सवाल बनकर खड़ा मिलता है। किसी से कुछ पूछो, कुछ बताओ कि ये समस्या है, समझ नहीं आ रहा क्या करूँ... तो वे कहते हैं कि ज़रूरी है पहले तुम बात की तह में जाओ। जैसे ही तुम समस्या की तह में जाओगे, वैसे ही तुम्हारे मन के सारे परदे हट जाएंगे। उन्हें ये बात क्यूँ समझ नहीं आती कि जहाँ से एक तह हटेगी, वहाँ उसके नीचे भी तो कुछ तह पर ही रखा होगा, वो हवा में झूलता तो होगा नहीं। मान लो हवा में ही है तो हवा भी तो एक तह, एक तल ही है। हर तल किसी न किसी तल पर ही रखा है, उसका जवाब कौन देगा? अच्छा ये जवाब ज़रूरी क्यूँ हैं...?
बोलते-बोलते मैं उसके कन्धे से सर उठाकर दुनिया देखने लगा, अपनी सवाल भरी आँखों के साथ...हम दोनों कुछ घडी शान्त बैठे रहे, कुछ पल के बाद उसने मेरा दाहिना हाथ अपने बाएं हाथ में लेकर ज़ोर से दबाया। कुछ पल ख़ामोश रहने के बाद उसने कहा, “पता है...सब शब्दों का खेल है।”
मैंने पलटकर उसकी आँखों में देखकर पूछा, “मतलब? शब्दों का खेल कैसे है सब?” उसने हाथ की पकड़ थोड़ी ढ़ीली करते हुए कहा, “जैसे दो या तीन अक्षरों को जोड़कर एक शब्द बनता है, और दो या तीन शब्दों को जोड़कर एक वाक्य बनता है, वैसे ही कई लाख शब्दों को जोड़कर मनुष्य बनता है। तुम्हें नहीं लगता कि हमारे अंदर की कोशिकाएं, अणु-परमाणु सब एक शब्द हैं..?” उसने सवालिया नज़र से मुझे देखा, मैं बिना कुछ बोले उसे देखता रहा। उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “अगर ध्यान से देखो तो तुम समझ पाओगे कि तुम जितने भी शब्द बोलते हो, किसी दूसरे के द्वारा कोई शब्द बोले जाने के बाद ही बोलते हो।”
“तुमको नहीं लगता है कि तुम पर शब्दों का अधिग्रहण है ..? तुम कुछ नहीं बोलते, तुम्हारे अंदर का शब्द बोलता है, किसी दूसरे के अंदर के शब्दों से। तुम किसी से नहीं लड़ते, तुम्हारे अंदर का शब्द लड़ता है किसी दूसरे के अंदर से निकले हुए शब्द से। यह दुनिया शब्दों का मायाजाल है। यहाँ शब्दों से बाहर कुछ नहीं है। अगर तुम इस तरह सोचो कि तुम्हारे अंदर का कोई शब्द कुछ सोच रहा होता है या तुम्हारे अंदर का एक शब्द तुम्हारे ही अंदर के दूसरे शब्द से बतिया रहा होता है और यह बात तुम सुन रहे होते हो और तुम इसे ही सोचना समझते हो, जबकि यह तुम नहीं सोच रहे हो यह तुम्हारे अंदर व्यवस्थित हो चुके शब्द सोच रहे हैं।”
मैंने पलटकर पूछा, “तो क्या तुम कहना चाहती हो कि हमारे ऊपर हमसे ज़्यादा शब्दों का ज़ोर चलता है..।” उसने बिना एक पल की देर किए कहा, “बिल्कुल मैं तो यही कहना चाहती हूँ। मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि हमारे ऊपर शब्दों का अधिग्रहण है। हमारे विचार और वाणी पर हमारी अपनी विचारधारा से ज़्यादा शब्दों की विचारधारा चलती है। तुम ख़ुद ही सोचो कि कोई जब तुम्हें गाली देता है तो तुम अपने एक मन में भले ही सोचो कि तुम इसका प्रत्युत्तर नहीं दोगे फिर भी कहीं ना कहीं तुम्हारे मन में उस गाली के विरोध में कोई शब्द फूटता है। वह एक शब्द का दूसरे शब्द को जवाब होता है। तुम उस जवाब को अपने मुख से भले ही ना निकलने दो, पर वह शब्द उस शब्द को जवाब देता है।”
मैं कुछ घड़ी शान्त रहने के बाद बोला, “इसका मतलब कि हम जो कुछ सोचते हैं वह हमारा सोचना नहीं है, वह शब्दों का आपस में बतियाना होता है। हम अपने अंदर बात कर रहे शब्दों की फुसफुसाहट को ही सोचना समझ लेते हैं जबकि वो मेरा सोचना होता ही नहीं।” उसने कहा, “हाँ, हो सकता है। तुम ही ने तो कहा था कि कितनी ऐसी क्रियाएं हैं जो हम जानते ही नहीं कि यह भी कोई क्रिया है और करते रहते हैं। सोचना भी ऐसी ही क्रिया है जिसका कारक हमें नहीं पता पर हम सोचते रहते हैं।
मैं उसे चुपचाप बिना कुछ बोले देखता रहा ...और सोचता रहा...कि मैं कुछ नहीं सोच रहा...मैं कुछ नहीं सोच रहा..।
आशुतोष प्रसिद्ध युवा कवि एवं गद्यकार हैं। उनकी रचनाएँ विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स व पत्रिकाओं में देखी गयी हैं। ईमेल : ashutoshprasidha@gmail.com
आभार आपका इस योग्य समझने के लिए 🌻🙏🏻