शिवांगी गोयल की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Mar 14
- 3 min read

शिवांगी गोयल की कविताएँ
एक
बेटियाँ,
फोन पर सुनती हैं—
"आज पिताजी की तबीयत ख़राब है
आज उन्हें दिल का दौरा पड़ा है
आज वह अस्पताल में भर्ती हैं"
बेटियाँ वीडियो कॉल पर देखती हैं—
भैया पैसे लेकर अस्पताल दौड़ रहे हैं
भाभी खाने के लिए पतली खिचड़ी बना रहीं हैं
अम्मा ने महामृत्युंजय जाप रखवाया है
डॉक्टर फिर भी नहीं बचा पा रहे हैं पापा को!
बेटियाँ अंतिम संस्कार के दिन आ पाती हैं
अपने ससुराल से लौटकर
बस अंतिम प्रणाम कर पाती हैं
और माँ के साथ बैठकर रो पाती हैं।
दो
मेरे कहीं पहुँचने से पहले पहुँच जाता है
मेरा शादीशुदा होना;
मेरी दोस्त के कहीं पहुँचने से पहले
पहुँच जाता है उसका 'डायवोर्सी' होना,
मेरी नानी के कहीं पहुँचने से पहले
पहुँचता है उनका विधवा होना
आदमी नहीं हुआ करते हैं खाली प्लॉट
उनके साथ उनका 'टैग' नहीं चलता है
एक बाबाजी कहते हैं—
खाली प्लॉट हैं बे-सिंदूर लगायीं औरतें,
उनपर कब्ज़ा किया जा सकता है!
खाली प्लॉट हैं औरतें, उजड़ी बिल्डिंगें हैं औरतें,
रेलवे-स्टेशन हैं औरतें जिनके ऊपर लिखा होता है—
'परित्यक्त' ।
तीन
मैंने सिर्फ़ एक आवाज़ दी थी,
मुझे नहीं पता था कि तुम चले आओगे!
मेरे तो पाँव भी मिट्टी से सने थे
जब मैंने तुम्हारा दरवाज़ा खटखटाया था;
तुम अब कहते हो कि इंसान को अपने पाँव साफ़ रखने चाहिए
पर उस दिन तुमने झुककर मेरे पाँव चूम लिए थे...
मैं तुम्हारे पास से लौटकर जब घर आई तो
बिना पाँव धोये घर के मंदिर में गयी और देवता से कहा—
"इन पैरों से ज़्यादा सुन्दर और प्रेम में डूबा कुछ भी नहीं है,
ये मैं तुम्हें अर्पित करती हूँ! "
उस दिन देवताओं ने भी मेरे पैर चूमे थे।
चार
कभी देखा है विद्रोह को
अपने भीतर जड़ें जमाते?
जैसे मिट्टी से निकलकर फैलते हैं केंचुए
वैसे ही दिमाग़ से निकलकर
फैलती विद्रोह की नसें;
किसी पेड़ की जड़ सरीखी पनपतीं
चुभ रही हैं अंदर से
बेचैनी का सबब बनती जा रहीं
रोको! वरना मैं विद्रोह का पेड़ हो जाऊँगी
जिसके हाथों और पैरों की जगह होंगी
विद्रोही टहनियाँ, विद्रोही जड़ें;
आ लिपटेंगे स्वतंत्रता की केंचुल ओढ़े हज़ारों साँप
और एक दिन सामाजिक संस्कारों की कुल्हाड़ी से
काट दी जायेंगी मेरी विद्रोही जड़ें
और तब वह साँप अपनी केंचुल वहीं छोड़
एक नई केंचुल ओढ़ आगे निकल जायेंगे!
पाँच
मेरी आत्मा चीख रही थी उसकी ज़बरदस्ती पर,
मेरा शरीर उसका साथ दे रहा था!
मैं दंग रह जाती हूँ, हर बार
क्यों मेरा शरीर मर्दों का साथ देता है?
इसने मेरे प्रेमी का भी साथ दिया था
जब वह मेरे भीतर ज़बरन घुसना चाह रहा था
क्यों मेरी टांगों के बीच काँटे नहीं उग आते?
क्यों मेरा प्रत्यंग विद्रोही नहीं बन जाता?
देखा है मैंने इसे–मर्दों का सान्निध्य पा
मेरा शरीर मुझसे ही विश्वासघात कर उठता है।
छः
दोस्तों की बरात में 'इश्क़ तेरा तड़पावे' पर नाचते हुए
लौंडे, आदमी हो जाते हैं और आदमी, अंकल
पुट्ठों के बल घिसटते हुए हमारी ब्लाउज़ के कोर से
किसी ओर-छोर से
झाँकते हुए एक टुकड़ा जन्नत देखने को
पागल भी, भयातुर भी–मन में सोचते हुए कि
कोहनी छुआ देंगे कपड़े के ऊपर से ही
कचकचाई हुई बसों में तो कितनी बार किया है ऐसा!
जिस लड़की से पूछो वही बता देगी एक ऐसे बदतमीज़ अंकल के बारे में
जो हो न हो, किसी का आदर्श बाप होगा, किसी का राखी भाई
और किसी ज़माने में एक मासूम लड़का
जिसने पहली बार लड़कपन में दोस्तों के उकसाने पर
किसी जवान छाती पर कुहनी मारी होगी
कई लड़के बताते हैं कि वह बचाते हैं अपने घर की लड़कियों को
ट्रेन में, बस में, बाज़ार में, भीड़ में जाने से
लेकिन वह नहीं बताते कि ठीक उनके ही जैसे लड़कों से
और भी लड़के बचाते हैं अपने घर की लड़कियों को
और यह परम्परा पूरब से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक
वैसे ही चलती है जैसे शरीर में आत्मा
क्या मिलता होगा किसी आत्मा को किसी औरत का सीना छू कर?
मसल कर? बिना उस औरत की मर्ज़ी के?
औरत का वक्ष सागर-सा लगता होगा क्या पुरुषों की आत्माओं को?
जिसके मंथन से ही अमरता का अमृत निकलेगा?
लेकिन अगर आदमी की अमरता औरत के वक्ष में है
तो औरत की अमरता कहाँ है? या औरतें शापित हैं?
क्या इसीलिए कहते हैं कि पापियों को मिलता है औरत का जन्म?
लेकिन मैं ये सोच कर भी कभी मुस्कुरा नहीं पाती कि
आख़िर जब एक मर्द औरत होगा तो वह भी वैसे ही मसला जाएगा
वैसे ही घूरा जाएगा, छुआ जाएगा–भीड़ में, बाज़ार में, उजाले में, अन्धकार में
औरतों की आत्माएँ इतनी छूई गईं कि पत्थर हो चुकी हैं,
और उनकी मुक्ति किसी किताब में, किसी देवता के हाथों नहीं लिखी है!
शिवांगी गोयल कविताएँ लिखने में विशेष रुचि रखती हैं। उनकी रचनाएँ विभिन्न अख़बारों में, कविता कोश और पोषम पा वेबसाइट इत्यादि पर प्रकाशित हुई हैं। ईमेल : shivangigoel.197@gmail.com
शानदार