सुजाता गुप्ता की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Jan 22
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टूटता तारा
जब चाँद निकल कर आया आज
तारों ने उसे घेरा बढ़ा कर हाथ
पूछा,
क्यों मारी थी उस रोज़
हमारे एक साथी तारे को आँख?
फँस गया चाँद बेचारा
तारों के बीच में
बोला,
उड़ आया था कोई बादल
मेरी आँख में
और मार गया था मैं
अपनी एक आँख।
तारों ने घूरकर देखा चाँद को
कि जाते-जाते चाँद ने
फिर से मारी आँख
और फिसल गया एक तीसरा तारा ।
जीवन
(पुल्लिंग)
मेरी एक उम्र
तुम्हारा बीता हुआ कल
और
तुम्हारी एक उम्र
मेरा आने वाला कल
मैं चाहती हूँ
चाँद और सूरज भी
भाग जाएँ साथ में
और हमारी एक उम्र
बराबर हो जाए।
हादसा
दरवाज़े के इस पार खड़ी हूँ मैं
दरवाज़े के उस पार खड़े हो तुम
हक़ीक़त और कल्पना में फासला
एक चौखट भर है।
बोलती वही गहरी आँखें
माथे के दायीं तरफ़ तिल
तुम्हारी गरदन पर पाँव पसारे
वो दाग़।
दो छोड़कर बटनें बंद करते हो
आज भी
बदन से आती महक
फीतों को बाँधने की अदा
सब वही है।
यही सोच रही थी
कि अचानक से तुमने गले लगा लिया
जैसे नज़रे लगा लेती हैं गले
चेहरे को।
इक-दूसरे के जिस्म की गरमाहट
दिलों में उठ रहे ज्वार-भाटे को
महसूस ही कर रहे थे
कि हाथों की पकड़ ढीली
और ढीली होती गयी
मैंने पकड़ना चाहा
आवाज़ देकर पास बुलाना चाहा
तुम दूर बहुत दूर होते गये
मैं चिल्ला बैठी!
माथे पर पसीनें की बूँदे उभर आयीं
साँस उखड़ने सी लगी।
प्रेम एक हादसा है
जो कोनों से निकलकर
अक्सर
फैल जाया करता है।
चिंता
तुम्हारी जड़ें पैरों तक हैं
जड़ें लिपटी हैं जैसे लताएँ
पानी रिस-रिस धब्बे बनाता है
ब्लैक होल जैसी
मुँह फाड़े खींच रही हैं
ऊर्जा
शरीर की उष्णता सोख लेती हैं
उजाले में रेंगती हैं
अँधेरे में
मछली की आँख पर निशाना साधे खड़ी हैं।
मुझे नहीं चाहिए थीं
इसलिए भूखा रक्खा इन्हें
भरी दुपहरी नंगा रक्खा
उलटकर पीटा झटकारा
मंतर पढ़े
टोटके किये
फिर भी
भीतर धँसती रहीं
बढ़ती रहीं
जाने कौन-सी नये क़िस्म की
जड़ें उग आयी हैं
विषम परिस्थिति में और नाचने लगती हैं।
मेरे ही हिस्से आयी हैं
दूसरे लोगों को भी पता है?
छुप-छुप कर नज़र रक्खी
ताका-झाँकी की
रात चोरों की तरह
घरों के बाहर छानबीन की
किताबें छानीं
इतिहास खंगाला
पर सब जस का तस।
जड़ें दिमाग़ से होते हुए
गरदन, छाती, पेट तक
बढ़ती ही गईं।
सुजाता गुप्ता एक उभरती हुई कवि हैं। इससे पहले उनकी कविताएँ सदानीरा में प्रकाशित हो चुकी हैं। ईमेल : sujata23gupta@gmail.com
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