सुमन शेखर की कविताएँ
- golchakkarpatrika
- Apr 9
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चिड़िया
एक
खिड़की पर चिड़िया आई,
बैठी
कुछ अपनी बात, शिकायत और प्रेम रखा,
उड़ गई
खिड़की पर अभी भी गूँज रही है उसकी चहचहाहट
अंततः मैं चुग रहा हूँ उसका स्नेह
सारी शिकायतों को कम से कम
इसी भाव पर ख़त्म होना चाहिए।
दो
पेड़ पर आकर रुकी चिड़िया
डालों पर कूदती-फाँदती
पत्तों में ओझल हुई,
नज़र से गुम गई चिड़िया
फिर कभी नहीं दिखी
दुनिया ऐसे ही चिड़ियों के गुम हो जाने की क़ब्रगाह है
बहुत आसानी से गुम हो जाती है हँसी
हवा मे डूब जाती है कोई चीख
हमारी देह क़ब्र का स्पर्श लिए फिरती रहती है।
तुम हमेशा मेरे पास हो
मैंने लिफ़ाफ़े में भेजा था– एक छोटा फूल गुलाब का
कितनी अजीब बात है
उसी समय में
उसी तरीक़े से
मिला मुझे साथ एक पत्ता भी खिला-सा
कमरे की दीवार पर
उँगलियों से उकेरा था एक चेहरा
अब उसमें दो आँखें उग आईं हैं
मैं देखता हूँ उनमें
देखती हैं वो मुझे
महीनों बीत जाते हैं इस तरह दीवार तकते हुए
कह दूँ!
तुमसे बात करने की वक़्त-बेवक़्त बहुत इच्छा होती है
मैं कहता हूँ कुछ शब्द
वापसी में उसी तरीके से
उसी समय
मिलता है पूरा वाक्य, पूरा संवाद
तुम हमेशा पास हो
जैसे पास होती है तुम्हारे होने की उम्मीद
उम्मीद, ईश्वर का दूसरा नाम भी है, कहते हैं पुरखे।
याद
वह एक ऐसा आदमी था,
जो भूला ही रहा सबके बीच रहकर
उसे याद रख पाने का कारण
उसके जीवित रहते कोई नहीं ढूँढ पाया
और इस तरह वह मरा
जैसे किसी ने कुछ जाना-देखा ही नहीं
कहीं कुछ घटा-बढ़ा भी नहीं।
चुहल दास उर्फ बन्ने मियाँ!
तुमने देखी है अपनी ज़ुबान बन्ने मियां!
कैसे अजीब और बेधड़क
भड़कीले शब्द आ चुके हैं तुम्हारी ज़ुबान पर
अश्लील, गंवार, पतीत के बहुत आगे से है शुरुआत तुम्हारी
उतना लिखा भी नहीं जा सकता
ये तुम्हारी ज़ुबान है बन्ने मियाँ!
यहाँ की वहाँ-वहाँ, कहाँ-कहाँ फेंक रहे हो!
वहाँ-वहाँ की यहाँ लाद लाते हो,
बरस पड़ते हो जो सामने दिख पड़ता है
क्या तुम असल में यही हो,
जो छुपा था दशकों से तुम्हारे भीतर बन्ने मियां!
अनकहे का समूचा अंतरलोक स्वयं से भी छुपा गये थे क्या!
इससे भी बात न बनती
लोगों को दुनिया-दुनिया में रो-चीखकर
कम से कमतर और नीच भी बता रहे हो!
अपनों को, अपनी लिखाई को क्या दे रहे हो बन्ने मियाँ?
ऐसा क्यों बोलते हो, ऐसा क्यों लिखते हो, ऐसा क्यों दिखते हो?
राजधानी की हवा में झूठ का इतना विष घुला है क्या!
आलोचना जिस दुनिया की
उसी का निवाला चुपके-चुपके
हँसते-बोलते चटका रहे हो!
ख़ुद को हर कविता में हारा, सहा हुआ बता रहे
यह क्या झूठ बाँच रहे हो बन्ने मियां!
एक बात बताओ
तुम लिखकर रात को चैन से सो पाते हो न!
उस नींद का स्वाद कैसा होता है!
दुनिया बुरी है तो हम भी अब बुरे ही हुए!
बन्ने मियाँ, बुराई को बुराई कभी काट सकती है भला!
बारूद के बदले मिसाइल चलाओगे तो लड़ाई बढ़ेगी
मुद्दे बढ़ेंगे, ज़ख़्म बढ़ेंगे
घाव पर मलहम लगानी थी
तुम ज़्यादा से ज़्यादा घाव ही देते-खाते गये!
ये कैसी गरिमा है बन्ने मियाँ!
जहाँ पहल शब्दों से हो सकती थी
तुमने उन शब्दों पर तीखे परमाणु बम का लेप मढ़ दिया?
यहाँ भी बात न बनी तो थाना-कोर्ट तक खुद को घसीट लिया?
लिखना, रोते हुए भावपूर्ण पढ़ना-बोलना
और गहमा-गहमी से तुम्हारी यारी
यह नई लत है न!
क्या मुँह दिखाओगे
जब यही शब्द तुम तक आ जाएगा घूमता हुआ,
सोचा है कभी!
या आदत पड़ चुकी है!
क्योंकि, ब्रह्मांड में फेंका गया सब
वापस आता है उसी रूप में
दवा, दुआ और लानत भी, पुरखे कह गए हैं
हाल ढूँढ रहे हो या चुहल बढ़ा रहे हो चुहल दास उर्फ बन्ने मियाँ?
स्मृति
मन के उस हिस्से में
जहाँ ग़लतियाँ और पछतावा हैं
वहीं, इच्छाएं ऐसे गूँजती हैं,
जैसे शांत दुपहरी में बुद्ध मंदिरों की घंटियाँ
स्मृति श्राप है
जीवन भर उससे उबरा नहीं जा सकता
सारा जिया टुकड़ा-टुकड़ा मुँह में घुलता रहता है
स्मृति वरदान है
जीवन भर उसके सहारे जिया जा सकता है
सारा जिया संचित रहता है,
जिसे समय-समय पर
टुकड़े-टुकड़े में चखा जाता है ख़ुश होने की कोशिश में
स्मृति का स्वाद उससे पूछो जो उसके बोझ से उबरा नहीं
या उससे पूछो जिसे कल का जिया कुछ याद नहीं
सुख छलावा है
दुख सच है
सारे रास्ते अंततः दुख तक ही पहुचते हैं
स्मृति सारे हिसाब रखती है।
जो हमेशा है, वह डरावना है
सत्य का सबसे अधिक विरोध वही करता है
जो सत्य से बहुत दूर खड़ा हो
या वश मे हो किसी ख़ूबसूरती के
जिसे रोने की आदत लग गई
उसे कंधे की आदत बहुत पहले लग चुकी है
वह एक दिन सुबह उठता है
आँख पर पट्टी बांध बाहर चला जाता है
वापसी में, वह अपना घर भूलने की कोशिश करता है
ताकि पूरी तरह थकना जान पाए
मेरे पिता एक लंबे समय से लापता हैं
हर शाम उनको ढूँढने निकलता हूँ
खाली हाथ जाता हुआ,
खाली-खाली लौट आता हूँ
सुबह फिर से आँखों में
पिता के होने के सपने भरे होते हैं
आख़िर किस वजह से किसी कवि ने कहा होगा—
“कवि को वह गाने दो, जो वह गाना चाहता है”
दुनिया का सारा लेखन
कल्पना के लेप से रंगा है
इमारत भव्य है, नींव झिलमिल
अपनी गलतियों को
कविता की शक्ल देकर सुधारा नहीं जा सकता
महान, जाने हुए लेखकों को पढ़ा,
सारे भ्रम टूटे
ख़ुद की हार और नाकामियों तले
ख़ुद को कितना ज़्यादा सहानुभूति परक लिखा जा सकता है!
ऐसे महान, जाने हुए कवि ने
उस बुराई को कहीं भी दर्ज नहीं किया,
जिसमे वह ख़ुद संलिप्त रहे
ऐसे महान, जाने हुए कवि ने
उसकी जगह ख़ुद को रखकर लिखा,
जो उसकी दी हुई पीड़ा का बोझ ढो रहे थे
ऐसे महान, जाने हुए कवि ने ऐसा भी लिखा
जिसपर उसने अमल न किया
लेकिन उसे पता था
यहाँ ‘वाह’ और ‘आह’ के साथ ‘सम्मान’ की गारंटी है,
तब जाना संदेह और स्मृति एक सीमा पर कितने सौतेले हैं।
याचक
मैंने ढूँढा है तुम्हें
स्त्री की सारी शक्लों में
तुम और ज़्यादा याद आती रही
मैं उन दिनों में और ज़्यादा पगलाया रहा
तुम रूई में तब्दील हुई कपास के पेड़ पर टिकी थीं
मैं याचना में निरत ऊपर तकता हुआ उम्र फूँकता रहा
न तुम उतरीं
न मैं बढ़ पाया आगे कहीं
बरस बीते
तुम्हें अब रूई की शक्ल में तकता हूँ
मन को मारता
तुम्हारे स्पर्श के इंतज़ार में डूबा हुआ मैं
मन से हठी तुम
परीक्षा को और कड़ी करती जाती हो
तुम अनंत के मेघ में छिपी बूँद हो
मैं धरती की बंजर रेत जो प्यासी है
तुम्हें पाने के लिए
ढूँढना होगा एक छद्म नाम या चेहरा!
शहर में बेचैनी है सांस भरने की
तुम धरती की वो बिंदु रहीं
जहाँ साँसें सबसे मुफ़ीद रहीं
मैं तुम्हें देखता हूँ
देखता हूँ लगातार अंतहीन सपनों में भी
मेरा देखना गीला उबटन है
तुम तितलियों-सी इठलाती हो
मैं हवा सा चूमता हूँ तुम्हें
कहने को तुम रहीं हमेशा मेरे पास
जैसे पेड़ धँसा होता है ज़मीन में
तुम मुझमें रहीं
मैंने कभी सुना नहीं तुम्हें।
सुमन शेखर युवा कवि हैं। लेखन के साथ रंगकर्म और अभिनय में निरत।
नाटक : महालीला, OTHELOSSS, N.U._E., इंतज़ार, कफ़स उदास है यारों, परतें, चिराग का लेखन। कई नाटकों में अभिनय और निर्देशन।
कुछ फ़िल्में : द सैडिस्ट, लाउडस्पीकर (अवार्ड विनिंग), छिछोरे, दिल्ली पुलिस पिकेट ड्यूटी, लाइफ टाइम डेथ, व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी, शेड्स ऑफ रेड (अवार्ड विनिंग) , स्माइल वेरसेज़ स्माइलीज़ (अवार्ड विनिंग), अनचाहा, दाग, इंटॉक्सिकेशन, द लिफ्ट, फर्स्ट लव, प्राची, चिट्ठी, किरदार सहित कई फिल्मों में अभिनय, लेखन, सह निर्देशन।
प्रकाशन : आलोचना, वागर्थ, कथादेश, कथाक्रम, सरस्वती पत्रिका, मधुमती, राजस्थान पत्रिका, कृति बहुमत, उद्भावना, हिंदी चेतना, अहा ज़िन्दगी, इन्द्र धनुष वेब पोर्टल, स्वाधीनता शारदीय विशेषांक और कौशिकी सहित कई पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
ईमेल : shekhers914@gmail.com
Wow shekhar bhai aise hi aage badho